Thursday, July 16, 2020

भू आकृति विज्ञान 【 पार्ट-1 】

मूलभूत संकल्पना

1) W.D.थॉर्नबरी के अनुसार-
" वे भौतिक प्रक्रियाएं एवं नियम, जो संपूर्ण भूगर्भिक काल में संचालित होते रहे हैं, वह आज भी संचालित होते हैं। यद्यपि ऐसा अनिवार्य नहीं है कि उनकी तीव्रता व गहनता सदैव एक समान रही हो। "
यह आधुनिक भू-विज्ञान का सबसे मौलिक सिद्धांत है।
● इसे 'भू-गर्भकालिक शैल समरूपतावाद' भी कहा जाता है। 
● यह सिद्धांत सबसे पहले 1785 ईस्वी में हटन महोदय द्वारा, 1802 ईस्वी में प्लेफेयर ने पुनर्विवेचन तथा लायल ने इसे लोकप्रिय बनाया था।
● " वर्तमान को भूतकाल की कुंजी " -  हटन महोदय 
उन्होंने बताया कि " भूगर्भिक प्रक्रिया आज की भांति संपूर्ण भूगर्भिक काल में सम्मान गहनता के साथ संचालित होती रही है। "


2) " स्थलरूपों के विकास में भूगर्भिक संरचना एक प्रभावी नियंत्रक कारक है, जिसे स्थलरूपों द्वारा प्रतिबिंबित किया जाता है। "


3) " पृथ्वी की सतह में एक वृहत मात्रा में भू आकृतियों का संचय होता है, क्योंकि भू आकृतिक प्रक्रियाओं के संचालन की दर विभेदमूलक होती है। "


4)  " भू-आकृतिक प्रक्रिया द्वारा स्थलरूपों पर अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी जाती है और प्रत्येक भू-आकृतिक प्रक्रिया अपने स्थलरूपों के लाक्षणिक समूच्चय को स्वयं विकसित करती हैं। "


5) " क्योंकि विभिन्न अपरदनात्मक कारक भूसतह पर क्रियाएं करते हैं, इसलिए भू-स्थलरूपों का व्यवस्थित अनुक्रम निर्मित होता है। "


6) " भू-आकृति विज्ञान की जटिलताएं उसकी साधारणशीलता की अपेक्षा अधिक व्यापक है। "

7) " भू-स्थलाकृतियों का अंश मात्र नवजीवी युग टरशियरी से पुराना है, जबकि इनका अधिकांश अभिनूतन युग 【 प्लीस्टोसीन 】 से पुराना नहीं है। "


8) " प्लीस्टोसीन युग के दौरान घटित भूगर्भिक एवं जलवायुविक परिवर्तनों के विविध प्रभावों का पूर्ण मूल्यांकन यह बिना वर्तमान स्थलरूपों की सुनिश्चित व्याख्या करना असंभव है। "


9) " विभिन्न भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के विविधता पूर्ण महत्व की जानकारी के लिए विश्व जलवायु का मूल्यांकन अनिवार्य है।



10) " यद्यपि भू-आकृति विज्ञान प्राथमिक रूप से वर्तमान स्थलरूपों से संबद्ध है तथापि उसे अपनी अधिकतम उपयोगिता ऐतिहासिक विस्तार द्वारा प्राप्त हुई है। "


                     अंतर्जात तथा बहिर्जात बल



अंतर्जात शक्तियां -  पदार्थ एवं तापमान के मध्य होने वाली प्रतिक्रिया द्वारा भू-पृष्ठ के अंदर से अंतर्जात बलों को उत्पन्न किया जाता है।
इसमें भू संतुलन दो प्रकार से होता है - 
1. पटल विरूपण 
2. आकस्मिक

 1. पटल विरूपण -  
● इसे दो भागों में विभाजित किया जाता है -
(क) महाद्वीपीय निर्माणकारी संचलन या महानिदेशक बल या इपीरोजेनिक -
● इसमें मंथन, नमन, वलन, भ्रंशन, संकुचन आदि क्रियाऐं शामिल होती हैं।
● ये शक्तियां पृथ्वी के घेरे के साथ-साथ कार्यरत होते हैं इसलिए इन्हें बहि: प्रकोष्ठीय है शक्तियां भी कहते हैं।
◆ इनकी दिशा भू-अभ्यंतर कि ओर अवतलन [ धसाव ] या भू-अभ्यंतर के विपरीत [ उन्नयन / उठाव ] भी हो सकती हैं।



■ भू-उन्नयन -
उदाहरण
◆ उन्नत बालुका तट, उन्नत तरंग घर्षित वैदिकाएं, समुद्री गुफाएं, समुद्री तल से उठे हुए जीवावशेषयुक्त संस्तर।
◆ दक्कन के पठार के उन्नयन का प्रमाण यह भी मिलता है कि सूरत के निकट समुद्र तल से ऊपर बेसाल्ट पर संकुचित रूप से चूना पत्थर की परत हैं।
काठियावाड़, उड़ीसा, नेल्लोर, चेन्नई, मदुरई, तिरुनेलवेली के तटीय क्षेत्रों में कई स्थानों पर वर्तमान समुद्र तल से 15 से 30 मीटर ऊंचे बालुका तट निर्मित हुए हैं।
◆ अनेक स्थान, जो कुछ सदियों पहले तक समुद्र तट पर स्थित थे, वर्तमान में कई मील दूर विस्थापित होकर अंतरस्थलीय क्षेत्र बन चुके हैं। जैसे - कोरिंगा ( गोदावरी मुहाने पर), कावेरिपट्टनम (कावेरी डेल्टा में), कोकेई (तिरुनेलवेली तट पर)
नोट : जो 2000 वर्ष पहले समृद्ध बंदरगाह थे।



■ भू अवतलन -
उदाहरण -
◆ सन् 1825 में आए भूकंप से कच्छ के रण का कुछ भाग जलमग्न हो गया।
◆ सुंदरवन एवं तिरुनेलवेली क्षेत्र में समुद्र तल से नीचे पीट तथा लिग्नाइट के भंडार भू-अवतलन का ही उदाहरण है।
◆ अंडमान निकोबार का मध्य स्थलीय भाग के समुंदर में डूब जाने के कारण अराकान तट से पृथक हुआ।
◆ मन्नार की खाड़ी, पाक जलडमरूमध्य भाग, चेन्नई के निकट स्थित पूर्ववर्ती नगर महाबलीपुरम का भी कुछ भाग समुद्र में डूबा है।
◆ एक जलमग्न वन तमिलनाडु के तिरुनेलवेली तट पर भी प्राप्त हुआ है।


(ख) पर्वत निर्माणकारी संचलन ( ओरोजेनिक ) - 
● इस प्रकार का संचालन पृथ्वी की सतह पर पटल विरूपण के रूप में स्पर्श रेखिय ढंग से कार्य करता है।
● तनाव के द्वारा दरारें पैदा होती हैं, क्योंकि इस प्रकार का बल बिंदु से विपरीत दो दिशाओं में कार्य करता है।
● दबाव या संपीडन से वलन पैदा होते हैं।
● सामान्यतः स्थलखंडों को ऊपर उठाने वाले पटल विरूपण बल तथा उन्हें नीचे रहने वालों से अधिक शक्तिशाली होते हैं।



2. आकस्मिक संचलन -
● यह दो प्रकार के होते हैं - भूकंप तथा ज्वालामुखी

भूकंप -
● यह उस समय घटित होता है जब भूगर्भिक चट्टानों में संचित अतिरिक्त दबाव कमजोर क्षेत्रों से होकर गतिज ऊर्जा तरंगों के रूप में भू-सतह पर पहुंचते हैं।
● इन ऊर्जा तरंगों की गति से पृथ्वी की सतह पर कंपन होता है, जिसे भूकंप कहा जाता है।
● इस प्रकार के संतुलन के परिणामस्वरूप उन्नयन या अवतलन दोनों हो सकते हैं।
● उदाहरण -
√ सन् 1822 में, चिली में आया भूकंप, जिससे तटीय क्षेत्रों में 1 मीटर ऊंचाई तक उन्नयन हुआ।
√ सन् 1855  में, न्यूजीलैंड में, कुछ क्षेत्र 3 मीटर तक ऊंचे उठ गए।
√ सन् 1891 में, जापान में, कुछ भू-भाग 6 मीटर तक नीचे धंसे



◆ भूकंप के कारण धरातलीय समोच्च रेखाएं एवं नदी जल प्रवाह मार्गों में भी परिवर्तन देखने को मिलता है।

★ ज्वालामुखी -
ज्वालामुखी का निर्माण तब होता है, जब पृथ्वी के आंतरिक भाग में से भू-पृष्ठीय दरारों एवं छिद्रों के माध्यम से द्रवीय चट्टानी पदार्थ ( मैग्मा ) बाहर निकलता है।
● इस द्रवीय पदार्थ के साथ  जलवाष्प, गैसे 【 कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड, सल्फर डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन क्लोराइड आदि 】 तथा विखंडित ज्वालामुखी पदार्थ बाहर आते है।

■ ज्वालामुखी के प्रकार -
1.शंक्वाकार अथवा केंद्रीय ज्वालामुखी -
जब ज्वालामुखी उदगार से निकलने वाला लावा  ठंडा होकर ज्वालामुखी छिद्र के चारों ओर एक शंकुनुमा आकृति में जमा हो जाता हैं तब, इस शंक्वाकार पर्वत की आकृति का जन्म होता है।
◆ जैसे -जापान का फ्यूजीयामा, विसुवियस (इटली) ।
◆ इस प्रकार के ज्वालामुखी का मैग्मा लचीला, अम्लीय तथा सिलिका युक्त होता है।

2. पठारी ज्वालामुखी - 
◆ इस प्रकार के ज्वालामुखी का मैग्मा कम लचीला, कम अम्लीय व कम सिलिका युक्त होता है।
जिसके उदगार के बाद शांत होने पर पठार सदृश्य आकृति का जन्म होता है।
◆ जैसे - हवाई दीप का मोनोलोआ ज्वालामुखी ।

3. दरारी ज्वालामुखी -
कभी-कभी गाढ़ा मैग्मा दरारों एवं भ्रंशों के माध्यम से सतह पर आ जाता है एक समय अंतराल के बाद यह मैग्मा एक विस्तृत भू-भाग में फैल जाता है, जिसके फलस्वरूप एक प्रकार तरंगित एवं सपाट भूभाग का निर्माण होता है।
◆ जैसे -दक्कन ट्रैप।

4. वृहत ज्वालामुखी कुंड या काल्डेरा -
मेग्मा के उदगार रुक जाने पर ज्वालामुखी कुछ समय बाद एक झील या कुंड का रूप ले लेता है, जिसे काल्डेरा कहते हैं।

जैसे -लूनर झील ( महाराष्ट्र ), क्राकाटाओ ( इंडोनेशिया )।


Wednesday, July 1, 2020

विनिर्माण उद्योग

प्राकृतिक संसाधनों को संशोधित कर के अधिक उपयोगी एवं मूल्यवान वस्तुओं में बदलना विनिर्माण कहलाता है। ये विनिर्मित वस्तुएँ कच्चे माल से तैयार की जाती हैं। विनिर्माण उद्योग में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल या तो अपने प्राकृतिक स्वरूप में सीधे उपयोग में ले लिये जाते हैं जैसे कपास, ऊन, लौह अयस्क इत्यादि। अर्द्ध-संशोधित स्वरूप में जैसे धागा, कच्चा लोहा आदि जिन्हें उद्योग में प्रयुक्त कर के और अधिक उपयोगी एवं मूल्यवान वस्तुओं के रूप में बदला जाता है। अतः किसी विनिर्माण उद्योग से विनिर्मित वस्तुएँ दूसरे विनिर्माण उद्योग के लिये कच्चे माल का कार्य करती हैं। अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी देश की आर्थिक-प्रगति या विकास उसके अपने उद्योगों के विकास के बिना संभव नहीं है।

औद्योगिक विकास के स्तर का किसी देश की आर्थिक सम्पन्नता से सीधा सम्बन्ध है। विकसित देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, रूस की आर्थिक सम्पन्नता इन देशों की औद्योगिक इकाइयों की प्रोन्नत एवं उच्च विकासयुक्त वृद्धि से जुड़ा है। औद्योगिक दृष्टि से अविकसित देश अपने प्राकृतिक संसाधानों का निर्यात करते हैं तथा विनिर्मित वस्तुओं को अधिक मूल्य चुकाकर आयात करते हैं। इसीलिये आर्थिक रूप से ये देश पिछड़े बने रहते हैं।

■ विनिर्माण उद्योग-

★ विनिर्माण: जब कच्चे माल को मूल्यवान उत्पाद में बनाकर अधिक मात्रा में वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है तो उस प्रक्रिया को विनिर्माण या वस्तु निर्माण कहते हैं।

■ विनिर्माण का महत्व-

● विनिर्माण उद्योग से कृषि को आधुनिक बनाने में मदद मिलती है।
● विनिर्माण उद्योग से लोगों की आय के लिये कृषि पर से निर्भरता कम होती है।
● विनिर्माण से प्राइमरी और सेकंडरी सेक्टर में रोजगार के अवसर बढ़ाने में मदद मिलती है।
● इससे बेरोजगारी और गरीबी दूर करने में मदद मिलती है।
● विनिर्माण द्वारा उत्पादित वस्तुओं से निर्यात बढ़ता है जिससे विदेशी मुद्रा देश में आती है।
● किसी देश में बड़े पैमाने पर विनिर्माण होने से देश में संपन्नता आती है।

■ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में विनिर्माण उद्योग का योगदान

● सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में उद्योग का कुल शेअर 27% है। इसमें से 10% खनन, बिजली और गैस से आता है।
●  शेष 17% विनिर्माण से आता है। लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण का यह शेअर पिछले दो दशकों से स्थिर रहा है।
● पिछले दशक में विनिर्माण की वृद्धि दर 7% रही है। 2003 से यह वृद्धि दर 9 से 10% रही है।
●  अगले दशक के लिये कम से कम 12% की वृद्धि दर की आवश्यकता है।
● भारत सरकार ने नेशनल मैन्युफैक्चरिंग काउंसिल (NMCC) का गठन किया गया है ताकि सही नीतियाँ बनाई जा सकें और उद्योग सही ढ़ंग से कार्य करे।

■ उद्योग की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कुछ कारक निम्नलिखित हैं:

● कच्चे माल की उपलब्धता
● श्रम की उपलब्धता
● पूंजी की उपलब्धता
● ऊर्जा की उपलब्धता
● बाजार की उपलब्धता
● आधारभूत ढ़ाँचे की उपलब्धता

★ कुछ उद्योग शहर के निकट स्थित होते हैं जिससे उद्योग को कई लाभ मिलते हैं। शहर के पास होने के कारण बाजार उपलब्ध हो जाता है। इसके अलावा शहर से कई सेवाएँ भी मिल जाती हैं; जैसे कि बैंकिंग, बीमा, यातायात, श्रमिक, विशेषज्ञ सलाह, आदि। ऐसे औद्योगिक केंद्रों को एग्लोमेरेशन इकॉनोमी कहते हैं।

आजादी के पहले के समय में ज्यादातर औद्योगिक इकाइयाँ बंदरगाहों के निकट होती थीं; जैसे कि मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, आदि। इसके फलस्वरूप ये क्षेत्र ऐसे औद्योगिक शहरी क्षेत्रों के रूप में विकसित हुए जिनके चारों ओर ग्रामीण कृषि पृष्ठप्रदेश थे।

■ उद्योग के प्रकार

◆ कच्चे माल के आधार पर वर्गीकरण :
◆ कृषि आधारित उद्योग: कपास, ऊन, जूट, सिल्क, रबर, चीनी, चाय, कॉफी, आदि।

◆ खनिज आधारित उद्योग: लोहा इस्पात, सीमेंट, अलमुनियम, पेट्रोकेमिकल्स, आदि।

★ भूमिका के आधार पर वर्गीकरण:

◆ आधारभूत उद्योग : 
जो उद्योग अन्य उद्योगों को कच्चे माल और अन्य सामान की आपूर्ति करते हैं उन्हें आधारभूत उद्योग कहते हैं।
उदाहरण: लोहा इस्पात, तांबा प्रगलन, अलमुनियम प्रगलन, आदि।

◆ उपभोक्ता उद्योग :
जो उद्योग सीधा ग्राहक को सामान सप्लाई करते हैं उन्हें उपभोक्ता उद्योग कहते हैं।
उदाहरण: चीनी, कागज, इलेक्ट्रॉनिक्स, साबुन, आदि।

■ पूंजी निवेश के आधार पर:

◆ लघु उद्योग :
जिस उद्योग में एक करोड़ रुपए तक की पूंजी का निवेश हो तो उसे लघु उद्योग कहते हैं।

◆ वृहत उद्योग :
जिस उद्योग में एक करोड़ रुपए से अधिक की पूंजी का निवेश हो तो उसे बृहत उद्योग कहते हैं।

■ स्वामित्व के आधार पर :

◆ सार्वजनिक या पब्लिक सेक्टर :
जो उद्योग सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रबंधित होते हैं उन्हें पब्लिक सेक्टर कहते हैं।
उदाहरण: SAIL, BHEL, ONGC, आदि।

◆ प्राइवेट सेक्टर: जो उद्योग किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा संचालित संचालित होते हैं उन्हें प्राइवेट सेक्टर कहते हैं।
उदाहरण: टिस्को, रिलायंस, महिंद्रा, आदि।

◆ ज्वाइंट सेक्टर: जो उद्योग सरकार और व्यक्तियों द्वारा साझा रूप से प्रबंधित होते हैं उन्हें ज्वाइंट सेक्टर कहते हैं।
उदाहरण: ऑयल इंडिया लिमिटेड।

◆को-ऑपरेटिव सेक्टर :
जिन उद्योगों का प्रबंधन कच्चे माल के निर्माता या सप्लायर या कामगार या दोनों द्वारा किया जाता है उन्हें को-ऑपरेटिव सेक्टर कहते हैं। इस प्रकार के उद्योग में संसाधनों को संयुक्त रूप से इकट्ठा किया जाता। इस सिस्टम में लाभ या हानि को अनुपातिक रूप से वितरित किया जाता है। मशहूर दूध को‌-ऑपरेटिव अमूल इसका बेहतरीन उदाहरण है। महाराष्ट्र का चीनी उद्योग इसका एक और उदाहरण है। लिज्जत पापड़ भी को-ऑपरेटिव सेक्टर का एक अच्छा उदाहरण है।

■ कच्चे और तैयार माल की मात्रा और भार के आधार पर:

◆ भारी उद्योग : लोहा इस्पात
◆ हल्के उद्योग : इलेक्ट्रॉनिक्स

■ लोहा इस्पात उद्योग


● लोहा इस्त्पात उद्योग एक आधारभूत उद्योग है क्योंकि लोहे का इस्तेमाल मशीनों को बनाने में होता है।
● इस कारण से स्टील के उत्पादन और खपत को किसी भी देश के विकास के सूचक के रूप में लिया जाता है।
● भारत में कच्चे इस्पाद का उत्पादन 32.8 मिलियन टन है और विश्व में इसका 9वाँ स्थान है।
● भारत स्पंज लोहे का सबसे बड़ा उत्पादक है। लेकिन भारत में प्रति व्यक्ति इस्पात की खपत केवल 32 किग्रा प्रति वर्ष है।
● अभी भारत में 10 मुख्य संकलित स्टील प्लांट हैं। इनके अलावा कई छोटे प्लांट भी हैं। इस सेक्टर में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड एक मुख्य पब्लिक सेक्टर कंपनी है।
● प्राइवेट सेक्टर की मुख्य कम्पनी है टाटा आयरन एंड स्टील कम्पनी।
● भारत में ज्यादातर लोहा इस्पात उद्योग छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र में केंद्रित है।
● इस क्षेत्र में सस्ता लौह अयस्क, उच्च क्वालिटी का कच्चा माल, सस्ते मजदूर और रेल और सड़क से अच्छा संपर्क है।

■ भारत में लोहा इस्पात उद्योग के खराब प्रदर्शन के कारण

● कोकिंग कोल की सीमित उपलब्धता और ऊँची कीमत
● श्रमिकों की कम उत्पादकता
● अनियमित विद्युत सप्लाई
● अविकसित अवसंरचना

■ कपड़ा उद्योग

● भारत की अर्थव्यवस्था में कपड़ा उद्योग अत्यंत महत्वपूर्ण है।
● देश के कुल औद्योगिक उत्पाद का 14% कपड़ा उद्योग से आता है।
● रोजगार के अवसर प्रदान करने के मामले में कृषि के बाद कपड़ा उद्योग का स्थान दूसरे नंबर पर है।
● इस उद्योग में 3.5 करोड़ लोगों को सीधे रूप से रोजगार मिलता है।
● सकल घरेलू उत्पाद में कपड़ा उद्योग का शेअर 4% है।
● यह भारत का इकलौता उद्योग है जो वैल्यू चेन में आत्मनिर्भर है और संपूर्ण है।

■ सूती कपड़ा

●  पारंपरिक तौर पर सूती कपड़े बनाने के लिए तकली और हथकरघा का इस्तेमाल होता था।
● अठारहवीं सदी के बाद पावर लूम का इस्तेमाल होने लगा। किसी जमाने में भारत का कपड़ा उद्योग अपनी गुणवत्ता के लिये पूरी दुनिया में मशहूर था।
● लेकिन अंग्रेजी राज के समय इंगलैंड की मिलों में बने कपड़ों के आयात के कारण भारत का कपड़ा उद्योग तबाह हो गया था।
● वर्तमान में भारत में 1600 सूती और सिंथेटिक कपड़े की मिलें हैं।
● उनमें से लगभग 80% प्राइवेट सेक्टर में हैं। बाकी की मिलें पब्लिक सेक्टर और को-ऑपरेटिव सेक्टर में हैं।
● इनके अलावा हजारों ऐसी छोटी-छोटी फैक्टरियाँ हैं जिनके पास चार से लेकर दस करघे हैं।

■ सूती कपड़ा उद्योग की अवस्थिति


● प्रारंभ में यह उद्योग महाराष्ट्र और गुजरात के कॉटन बेल्ट तक ही सीमित हुआ करता था।
● सूती कपड़ा उद्योग के लिये यह बेल्ट आदर्श था क्योंकि यहाँ कच्चे माल, बंदरगाह, यातायात के साधन, श्रम, नम जलवायु, आदि की उपलब्धता थी।
● यह उद्योग से कपास उगाने वालों, कपास चुनने वालों, धुनाई करने वालों, सूत की कताई करने वालों, रंगरेजों, डिजाइनर, पैकिंग करने वालों और दर्जियों को रोजगार प्रदान करता है।
● कपड़ा उद्योग कई अन्य उद्योगों को भी पालता है; जैसे केमिकल और डाई, मिल स्टोर, पैकेजिंग मैटीरियल और इंजीनियरिंग वर्क्स।
● आज भी कताई का काम मुख्य रूप से महाराष्ट्र, गुजरात और तामिलनाडु में केंद्रित है।
● लेकिन बुनाई का काम देश के कई हिस्सों में फैला हुआ है।
भारत जापान को सूती धागे निर्यात करता है।
●सूती उत्पाद अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, पूर्वी यूरोप, नेपाल, सिंगापुर, श्रीलंका और अफ्रिकी देशों को भी निर्यात किये जाते हैं।
● चीन के बाद भारत के पास स्पिंडल्स (तकुओं) की दूसरी सबसे बड़ी क्षमता है।
● वर्तमान में भारत में 3.4 करोड़ के आस पास स्पिंडल्स की क्षमता है।
● सूती धागे के विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी एक चौथाई यानि 25% है। लेकिन सूती पोशाकों के व्यवसाय में भारत का शेअर केवल 4% ही है।
● हमारे स्पिनिंग मिल इतने सक्षम हैं कि ग्लोबल लेवेल पर कंपीट कर सकते हैं और जो भी रेशे हम उत्पादित करते हैं उन सबकी खपत कर सकते हैं।
● लेकिन हमारे बुनाई, कताई और प्रक्रमण यूनिट उतने सक्षम नहीं हैं कि देश में बनने वाले उच्च क्वालिटी के रेशों का इस्तेमाल कर सकें।

■ सूती कपड़ा उद्योग की समस्याएँ

● इस उद्योग की मुख्य समस्याएँ हैं बिजली की अनियमित सप्लाई और पुरानी मशीनें।
● इसके अलावा अन्य समस्याएँ हैं; श्रमिकों की कम उत्पादकता और सिंथेटिक रेशों से कड़ी प्रतिस्पर्धा।

■ जूट उद्योग

● कच्चे जूट और जूट से बने सामानों के मामले में भारत विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक है।
● बांग्लादेश के बाद भारत जूट का दूसरे नंबर का निर्यातक है।
● भारत की 70 जूट मिलों में ज्यादातर पश्चिम बंगाल में हैं जो मुख्यतया हुगली नदी के किनारे स्थित हैं।
●  जूट उद्योग एक पतली बेल्ट में स्थित है जो 98 किमी लंबी और 3 किमी चौड़ी है।
● जूट के परिष्करण के लिये प्रचुर मात्रा में जल और पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश से मिलने वाले सस्ते मजदूर।
● जूट उद्योग सीधे रूप से 2.61 लाख कामगारों को रोजगार प्रदान करता है।
● साथ में यह उद्योग 40 लाख छोटे और सीमांत किसानों का भी भरण पोषण करता है। ये किसान जूट और मेस्टा की खेती करते हैं।

■ जूट उद्योग की चुनौतियाँ

● जूट उद्योग को सिंथेटिक फाइबर से कड़ी प्रतिस्पर्धा मिल रही है।
● साथ ही इसे बंगलादेश, ब्राजील, फिलिपींस, मिस्र और थाइलैंड से भी प्रतिस्पर्धा मिल रही है।
● सरकार ने पैकेजिंग में जूट के अनिवार्य उपयोग की नीति बनाई है।
● इसके कारण देश के अंदर ही मांग में वृद्धि हो रही है।
● 2005 में नेशनल जूट पॉलिसी बनाई गई थी जिसका उद्देश्य था जूट की उत्पादकता, क्वालिटी और जूट किसानों की आमदनी को बढ़ाना।
● विश्व में पर्यावरण के लिये चिंता बढ़ रही है और पर्यावरण हितैषी और जैवनिम्नीकरणीय पदार्थों पर जोर दिया जा रहा है।
● इसलिये जूट का भविष्य उज्ज्वल दिखता है।
● जूट उत्पाद के मुख्य बाजार हैं अमेरिका, कनाडा, रूस, अमीरात, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया।

■ चीनी उद्योग


● विश्व में भारत चीनी का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
● भारत गुड़ और खांडसारी का सबसे बड़ा उत्पादक है।
●  भारत में 460 से अधिक चीनी मिलें हैं; जो उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तामिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा और मध्य प्रदेश में फैली हुई हैं।
● 60 प्रतिशत मिलें उत्तर प्रदेश और बिहार में हैं और बाकी अन्य राज्यों में हैं। मौसमी होने के कारण यह उद्योग को‌-ऑपरेटिव सेक्टर के लिये अधिक उपयुक्त है।
● हाल के वर्षों में चीनी उद्योग दक्षिण की ओर शिफ्ट कर रहा है। ऐसा विशेष रूप से महाराष्ट्र में हो रहा है।
● इस क्षेत्र में पैदा होने वाले गन्ने में शर्करा की मात्रा अधिक होती है।
● इस क्षेत्र की ठंडी जलवायु से गन्ने की पेराई के लिये अधिक समय मिल जाता है।

■ चीनी उद्योग की चुनौतियाँ

● इस उद्योग की मुख्य चुनौतियाँ हैं; इसका मौसमी होना, उत्पादन का पुराना और कम कुशल तरीका, यातायात में देरी और खोई का अधिकतम इस्तेमाल न कर पाना।

■ सूचना प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग

● सूचना प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग का मुख्य केंद्र बंगलोर है।
● इस उद्योग के अन्य मुख्य केंद्र हैं मुम्बई, पुणे, दिल्ली, हैदराबाद, चेन्नई, कोलकाता, लखनऊ और कोयम्बटूर।
● देश में 18 सॉफ्टवेयर टेक्नॉलोजी पार्क हैं।
● ये सॉफ्टवेयर विशेषज्ञों को एकल विंडो सेवा और उच्च डाटा संचार की सुविधा देते है।
● इस उद्योग ने भारी संख्या में रोजगार प्रदान किये है।
● 31 मार्च 2005 तक 10 लाख से अधिक लोग सूचना प्रौद्योगिकी में कार्यरत हैं।
●हाल के वर्षों में बीपीओ में तेजी से वृद्धि हुई है। इसलिये इस सेक्टर से विदेशी मुद्रा की अच्छी कमाई होती है।

■ औद्योगिक समूह

भारत में औद्योगिक विकास के स्तरों में बहुत अधिक क्षेत्रीय असमानताएँ व भिन्नताएँ हैं। कुछ स्थानों पर भारतीय उद्योग समूह के रूप में संकेन्द्रित हो गए हैं। भारत में अधिकतर औद्योगिक क्षेत्रों का विकास कुछ प्रमुख बन्दरगाहों जैसे कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई के पृष्ठ भाग के ईद-गिर्द क्षेत्रों में हो गया है। इन औद्योगिक क्षेत्रों को सभी सुविधाएँ एवं लाभदायक स्थितियाँ प्राप्त हैं जैसे कच्चे माल की उपलब्धि, ऊर्जा, पूँजी, विपणन केन्द्रों तक अभिगम्यता, इत्यादि। कुल छः औद्योगिक क्षेत्रों में से तीन इन बन्दरगाहों के पृष्ठ प्रदेश में ही स्थित हैं। प्रमुख छः औद्योगिक क्षेत्र निम्नलिखित हैं-

(1) हुगली औद्योगिक क्षेत्र
(2) मुम्बई-पुणे औद्योगिक क्षेत्र
(3) अहमदाबाद-वडोदरा क्षेत्र
(4) मदुरई-कोयम्बटूर-बंगलुरु क्षेत्र
(5) छोटा नागपुर का पठारी क्षेत्र
(6) दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्र

इन उपरोक्त प्रमुख क्षेत्रों के अलावा 15 छोटे औद्योगिक क्षेत्र तथा 15 औद्योगिक जिले हैं।

■ औद्योगिक आत्मनिर्भरता

औद्योगिक आत्मनिर्भरता का अर्थ है भारत के लोग उद्योगों की स्थापना, संचालन और प्रबंधन, देश में उपलब्ध तकनीकी ज्ञान, पूँजी एवं मशीनरी, कल पुर्जे जो भारत में ही विनिर्मित किए जाते हैं, उनका उपयोग दक्षता और कुशलता से कर सकने में समर्थ हैं। इसमें किसी भी बाहरी देश के किसी भी प्रकार की सहायता पर निर्भरता नहीं रहती।

भारत सरकार ने सन 1956 में एक औद्योगिक नीति का निर्धारण किया जिसके मुख्य लक्ष्य थे- औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाना, रोजगार पैदा करना, उद्योगों का विकेन्द्रीकरण करना, औद्योगिक विकास में क्षेत्रीय असमानता को दूर करना तथा लघु-उद्योग एवं कुटीर-उद्योग को विकसित करना इत्यादि।

उद्योगों के सुनियोजित विकास के द्वारा आज हम अनेकों प्रकार के औद्योगिक उत्पादों का निर्माण करते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है ऐसी वस्तुओं का विनिर्माण जो अन्य वस्तुओं को विनिर्मित करने में सहायक होती हैं। भारत आज भारी मशीनरी और उपकरणों के निर्माण में सक्षम और पूर्णतः स्वावलम्बी है। इन विनिर्मित मशीनों एवं विभिन्न उपकरणों का उपयोग उत्खनन, सिंचाई, ऊर्जा परियोजनाओं, परिवहन एवं संचार के क्षेत्र में होता है। हम भारत में बनी भारी मशीनों का उपयोग सीमेंट, वस्त्र, लोहा एवं इस्पात, चीनी उद्योगों में करते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र का औद्योगिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में अभूतपूर्व योगदान रहा है। लोहा एवं इस्पात, रेलवे के उपकरण, पेट्रोलियम, कोयला एवं उर्वरक जैसे उद्योगों का सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत ही विकास किया गया है। ये उद्योग औद्योगिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में ही स्थापित किए गए थे। सातवीं पंचवर्षीय योजना के काल में उच्च-प्रौद्योगिकी, उच्च मूल्य संवर्धन और आधुनिक ज्ञान विज्ञान आधारित उद्योग जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग, प्रोन्नत प्रकार के मशीनी उपकरण, निर्माण, दूर-संचार के क्षेत्र पर अधिक बल दिया गया था।