Friday, June 26, 2020

एंटी डंपिंग ड्यूटी



 "डंपिंग" का मतलब किसी भी प्रकार के अत्याधिक कम मूल्य निर्धारण से है।आम तौर पर यह शब्द अब केवल अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून के संदर्भ में ही प्रयोग किया जाता है।

चर्चा में क्यों?

● हाल ही में वित्त मंत्रालय ने दक्षिण कोरिया और थाईलैंड से आयात होने वाले शुद्ध PTA (Pure Terephthalic Acid) पर एंटी-डंपिंग शुल्क लगाया है।

डंपिंग क्या है?

● किसी देश द्वारा दूसरे मुल्क में अपने उत्पादों को लागत से भी कम दाम पर बेचने को डंपिंग कहा जाता है।

एंटी डंपिंग ड्यूटी / डंपिंग ड्यूटी क्यों अध्यारोपित की जाती है?

● इससे घरेलू उद्योगों का सामान महंगा पड़ने के कारण वे बाजार में पिट जाते हैं।
● सरकार इसे रोकने के लिए निर्यातक देश में उत्पाद की लागत और अपने यहां मूल्य के अंतर के बराबर शुल्क लगा देती है। इसे ही डंपिंगरोधी शुल्क यानी एंटी डंपिंग ड्यूटी कहा जाता है।

क्या? होता हैं इस प्रक्रिया में!

● विश्व व्यापार को खोलने के उद्देश्य से विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों के बीच एक समझौता हुआ जिसके अधीन सदस्य देश अपना माल एक दूसरे के यहां निर्यात कर सकें।
● इसके लिए अनुकूल सुविधाएं प्रदान करना, कस्टम ड्यूटी कम करना और प्रतिबंध हटाना शामिल था। लेकिन उदारीकरण के साथ-साथ कुछ शर्तें भी तय की गईं जिससे कोई देश इसका नाजायज़ फ़ायदा न उठा सके।
● अगर एक देश के किसी उत्पाद की क़ीमत 100 रुपए है तो वह उसी क़ीमत पर दूसरे देश को निर्यात कर सकता।
● अगर वह 70 या 80 रुपए में उसे निर्यात करेगा तो उसपर आयात करने वाले देश की सरकार ऐंटी डंपिंग ड्यूटी लगा सकती है।
● जिससे देश की उन इकाइयों को नुक़सान न हो जो उस तरह का माल तैयार कर रही हैं।


प्रमुख बिंदु

● वाणिज्य मंत्रालय में नियुक्त अधिकारी द्वारा सनसेट समीक्षा के आधार पर की गई सिफारिशों को लागू करते हुए राजस्व विभाग ने PTA पर 27.32 डॉलर प्रति टन एंटी-डंपिंग शुल्क लगाया गया है।
● PTA पॉलिएस्टर चिप्स के निर्माण प्रयोग होने वाला प्राथमिक कच्चा माल है जो कपड़े, पैकेजिंग, साज-सामान, उपभोक्ता वस्तुओं, रेज़िन और कोटिंग आदि में प्रयोग किया जाता है।


जलवायु परिवर्तन, ग्रीष्म लहर और वनाग्नि



■ दोस्तों ग्लोबल वार्मिंग एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। देश विदेश के लोग इस मुद्दे पर जागरूक हो रहे हैं।

■ दोस्तों उबलते पानी के मेंढक की कहानी के बारे में सबने सुना होगा, उबलते पानी में एक मेंढक ऐसे कूदता है मानो वह पानी से कूदकर स्वयं को बचा लेगा, लेकिन वह मेंढक जो पानी में है, वह धीरे-धीरे गर्म हो जाता है और अंत में उसकी मौत हो जाती है। वैश्विक ऊष्मन अर्थात् ग्लोबल वार्मिंग का संकट भी हमें इसी तरह दिनों-दिन घेरता जा रहा है ऐसे में यह आवश्यक हो गया है कि हम स्वयं को सुरक्षित रखने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम उठाएँ।

ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ

● पर्यावरण में बढ़ता तापमान। सूर्य की गर्मी से धरती लगातार गर्म हो रही है और इसका मुख्य कारण है पर्यावरण में कार्बन डाईआक्साईड की मात्रा में वृद्धि।
● इस कार्बन डाईआक्साईड के स्तर के बढ़ने का मुख्य कारण है, धरती पर घटती पेड़ों की संख्या जो कि हवा को शुद्ध करने का कार्य करते हैं।
● बढ़ते तापमान के कारण धरती पर मौसम में अत्यधिक परिवर्तन, कहीं बाढ़ तो कहीं तूफान, फसलों को नुकसान के कारण खाद्य सामग्री में कमी व कई प्रकार की बीमारियाँ बढ़ रही हैं।
● इन सबसे निपटने के लिए हमें अपने पर्यावरण को स्वच्छ रखने की आवश्यकता है।

● ग्लोबल वार्मिंग जिसे सामान्य भाषा मे, भूमंडलीय तापमान मे वृद्धि कहा जाता है|
● पृथ्वी पर आक्सीजन की मात्रा ज्यादा होनी चाहिये परन्तु, बढ़ते प्रदुषण के साथ कार्बनडाईआक्साइड की मात्रा बढ़ रही है|
● जिसके चलते ओजोन पर्त मे एक छिद्र हो चूका है|
● वही पराबैगनी किरणें सीधे पृथ्वी पर आती है, जिसका असर ग्रीनहाउस पर पड़ रहा है|
● अत्यधिक गर्मी बढ़ने लगी है, जिसके कारण अंटार्कटिका मे बर्फ पिघल रही है जिससे, जल स्तर मे बढोतरी हो रही है|
● रेगिस्तान मे बढ़ती गर्मी के साथ रेत का क्षेत्रफल बढ़ रहा है|

ग्रीनहाउस के असंतुलन के कारण ही ग्लोबल वार्मिंग हो रही है|

■ ग्रीनहाउस क्या है?

● सभी प्रकार की गैसों से, जिनका अपना एक प्रतिशत होता है, उन गैसों से बना ऐसा आवरण जोकि, पृथ्वी पर सुरक्षा पर्त की तरह काम करता है|
● जिसके असंतुलित होते ही, ग्लोबल वार्मिंग जैसी भीषण समस्या सामने आती है|


वर्तमान स्थिति

15 जनवरी 2020 को विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization) के प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय डेटासेट के समेकित विश्लेषण के अनुसार, संगठन ने पुष्टि की कि वर्ष 2016 के बाद वर्ष 2019 दशक का दूसरा सबसे गर्म वर्ष रहा।

औसत तापमान

● पाँच वर्ष (2015-2019) और दस वर्ष (2010-2019) के लिये औसत तापमान रिकॉर्ड स्तर पर काफी अधिक रहा।
● 1980 के दशक से हर एक दशक पिछले दशक की तुलना में गर्म रहा है।
● इस प्रवृत्ति के आगे भी जारी रहने की उम्मीद है क्योंकि वायुमंडल में ऊष्मा को रोकने वाली ग्रीनहाउस गैसों के रिकॉर्ड स्तर के कारण पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन आ रहा है।
● इस समेकित विश्लेषण में इस्तेमाल किये गए पाँच डेटा सेटों के अनुमान के अनुसार, वर्ष 2019 में वार्षिक वैश्विक तापमान वर्ष 1850-1900 के औसत तापमान से 1.1 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, जिसका उपयोग पूर्व-औद्योगिक परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व करने के लिये किया जाता था।
● वर्ष 2016 एक मज़बूत अल नीनो (El Niño) के कारण रिकॉर्ड स्तर पर सबसे गर्म वर्ष रहा है, जिससे ऊष्मन और दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन प्रभाव अधिक होता है।
● वर्ष 2019 में जुलाई माह को यूरोप में सबसे गर्म माह के रूप दर्ज किया गया (जब से वर्ष के तापमान के विषय में रिकॉर्ड दर्ज किया जा रहा है, तब से अभी तक का सबसे गर्म माह), इसके चलते बहुत-से लोगों की मौत हो गई, दफ्तरों के साथ-साथ कई आवश्यक सेवाओं को भी बंद रखा गया।

प्रभाव

● तपती गर्मी ने न केवल पूरे गोलार्द्ध के मौसम में परिवर्तन किया, बल्कि ऑस्ट्रेलिया में अभी तक के सबसे गर्म एवं शुष्क वर्ष के रूप में दर्ज किये गए वर्ष 2019 ने वनाग्नि जैसी खतरनाक स्थिति को भी जन्म दिया जिसकी व्यापकता एवं भयावता ने संपूर्ण विश्व को झकझोर कर रख दिया।
● अत्यधिक तापमान, ग्रीष्म लहर या हीटवेव और रिकॉर्ड स्तर पर सूखे की स्थिति कोई विसंगतियाँ नहीं हैं बल्कि ये सभी एक बदलती जलवायु की व्यापक प्रवृत्तियाँ हैं।
● यदि वैश्विक तापमान में और अधिक वृद्धि होती है तो इससे उत्पन्न होने वाले प्रभावों की भयावहता की कल्पना अतिशयोक्ति नहीं होगी।



3.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि

● UNEP की उत्सर्जन गैप रिपोर्ट 2019 के अनुसार, कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के मौजूदा स्तर पर, यदि हम केवल पेरिस समझौते की वर्तमान जलवायु प्रतिबद्धताओं पर निर्भर करते हैं और उन्हें पूरी तरह से लागू करते हैं, तो 66 प्रतिशत संभावना यह है कि सदी के अंत तक वैश्विक ऊष्मन में 3.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि होगी।

क्या किया जा सकता है?
सरकार, कंपनियाँ, उद्योग और जी20 देशों की जनता, जो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 78 प्रतिशत के लिये ज़िम्मेदार हैं, के डीकार्बोनाइज़ेशन (अर्थात् किसी पदार्थ से कार्बन या कार्बनिक अम्‍ल को अलग करना) के लिये सटीक लक्ष्य और समयसीमा तय की जानी चाहिये ताकि इस दिशा में प्रभावी कार्यवाही संभव हो सके।
● इसके अतिरिक्त दक्ष प्रौद्योगिकियों, स्मार्ट खाद्य प्रणालियों और शून्य-उत्सर्जन क्षमता तथा अक्षय ऊर्जा से संचालित इमारतों को विकसित करना चाहिये, साथ ही इसी के अनुरूप अन्य विकल्प अथवा उपाय अपनाने चाहिये ताकि आने वाली पीढ़ी के अस्तित्व को सुरक्षित रखा जा सके।
● वर्ष 2020 में विश्व जलवायु परिवर्तन से संबंधित अपनी प्रतिबद्धताओं को पूर्ण करने की दिशा में प्रभावी कार्यवाही सुनिश्चित कर सकता है।
● यह एक ऐसा वर्ष है जब वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि को सीमित करने के लिये वैश्विक उत्सर्जन में 7.6 प्रतिशत की कटौती करने की आवश्यकता है, वर्ष 2030 तक इसमें प्रत्येक वर्ष 7.6 प्रतिशत की गिरावट आनी चाहिये।
● इससे पहले की वर्ष 2020 में चरम मौसमी घटनाएँ समुदायों और पारिस्थितिक तंत्रों पर उनकी क्षमता से अधिक दबाव बनाए, एक वैश्विक समुदाय के रूप में हमारे पास पृथ्वी को मेंढक की तरह उबलने से बचाने के लिये पर्याप्त साधन और अवसर मौजूद हैं, लेकिन अब समय केवल नीतियाँ बनाने का नहीं है, बल्कि उनका प्रभावी क्रियान्वयन करने का है, इसकी और अधिक अनदेखी का परिणाम कितना भयावह हो सकता है इसकी कल्पना ऑस्ट्रेलियाई वनाग्नि से की जा सकती है।



ग्लोबल वार्मिंग क्यों हो रही है? 

● ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण प्रदुषण है|
● आज के समय के अनुसार, प्रदुषण और उसके प्रकार बताना व्यर्थ है|
● हर जगह और  क्षेत्र मे यह बढ़ रहा है, जिससे कार्बनडाईआक्साइड की मात्रा बढ़ रही है|
● जिसके चलते ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है|
● आधुनिकीकरण के कारण, पेड़ो की कटाई गावों का शहरीकरण मे बदलाव|
● हर खाली जगह पर बिल्डिंग,कारखाना, या अन्य कोई कमाई के स्त्रोत खोले जा रहे है| खुली और ताजी हवा या
● आक्सीजन के लिये कोई स्त्रोत नही छोड़े| अपनी सुविधा के लिए, प्राचीन नदियों के जल की दिशा बदल देना|
● जिससे उस नदी का प्रवाह कम होते-होते वह नदी स्वत: ही बंद हो जाती है|
● गिनाने के लिये और भी कई कारण है| पृथ्वी पर हर चीज़ का एक चक्र चलता है|
● हर चीज़ एक दूसरे से, कही ना कही, किसी ना किसी, रूप मे जुडी रहती है|
● एक चीज़ के हिलते ही पृथ्वी का पूरा चक्र हिल जाता है| जिसके कारण भारी हानि का सामना करना पड़ता है|



ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव

● जिस तरह प्राक्रतिक आपदा का प्रभाव पड़ता है| उससे भारी नुकसान उठाना पड़ता है|
● बिल्कुल उसी तरह, ग्लोबल वार्मिंग एक ऐसी आपदा है, जिसका प्रभाव बहुत धीरे-धीरे होता है|
● यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है कि, दूसरी आपदाओं की भरपाई तो कई सालो हो सकती है|
● लेकिन ग्लोबल वार्मिंग से हो रहे, नुकसान की भरपाई मनुष्य अपनी अंतिम सास तक नही कर सकता|
जैसे –
● ग्लोबल वार्मिंग के चलते, कई पशु-पक्षी व जीव-जंतुओं की प्रजाति ही विलुप्त हो चुकी है|
● बहुत ठंडी जगह जहाँ, बारह महीनों बर्फ की चादर ढकी रहती थी|
● वहां बर्फ पिघलने लगी जिससे, जल स्तर मे वृद्धि होने लगी है|
भीषण गर्मी के कारण रेगिस्तान का विस्तार होने लगा है|
● जिससे आने वाले वर्षो मे, और अधिक गर्मी बढ़ने की संभावना है|
● पृथ्वी पर मौसम के असंतुलन के कारण चाहे जब अति वर्षा, गर्मी, व ठण्ड पड़ने लगी है या सुखा रहने लगा है|
● जिसका सबसे बड़ा असर फसलो पर पड़ रहा है जिससे, पूरा देश आज की तारीख मे महंगाई से लड़ रहा है|
● ग्लोबल वार्मिंग से पर्यावरण पर सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है| जिससे कोई भी व्यक्ति छोटे से लेकर बड़े तक किसी ना किसी बीमारी से ग्रस्त है|
● शुद्ध आक्सीजन न मिलने के कारण व्यक्ति घुटन की जिंदगी जीने लगा है|

ग्लोबल वार्मिंग के निराकरण 

● ग्लोबल वार्मिंग के लिये बहुत आवश्यक है, “पर्यावरण बचाओ, पृथ्वी बचेगी|” बहुत ही छोटे-छोटे दैनिक जीवन मे, हो रहे कार्यो मे बदलाव को सही दिशा मे ले जाकर, इस समस्या को सुलझाया जा सकता है|
● पेड़ो की अधिक से अधिक मात्रा मे मौसम के अनुसार लगाये|
● लंबी यात्रा के लिये कार की बजाय ट्रेन का उपयोग करे|
● दैनिक जीवन मे जहा तक संभव हो सके, दुपहिया वाहनों की बजाय, सार्वजनिक बसों या यातायात के साधनों का उपयोग करे|
● बिजली से चलने वाले साधनों की अपेक्षा, सौर ऊर्जा वाले साधनों का उपयोग करे|
● जल का दुरुपयोग न करे|
● प्राचीन व प्राकृतिक जल संसाधनों का नवीनीकरण ऐसा न करे जिससे वह नष्ट हो जाये|
आधुनिक चीजों के उपयोग को कम कर घरेलु व देशी चीजों का उपयोग करे|


Wednesday, June 24, 2020

भारत में कृषि क्लस्टर



विकासशील देशों के ये किसान कम मार्जिन के "संतुलन के चक्र" (Cycle of Equilibrium) से घिरे हैं जहाँ पर सीमित क्षमता और कम निवेश के चलते कम उत्पादकता, कम बाज़ार उन्मुखीकरण जैसी परिस्थितियाँ व्याप्त हैं। इस चक्र को दीर्घकालीन प्रतिस्पर्द्धा के माध्यम से ही तोड़ा जा सकता है। जिसे साधारण शब्दों में कृषि क्लस्टर कहा जाता हैं।

चर्चा में क्यों?

● भारत सरकार ने कृषि निर्यात नीति-2018 (Agri Export Policy-2018) के तहत आंध्र प्रदेश के अनंतपुर और कडप्पा ज़िलों को केला क्लस्टर के तौर पर अधिसूचित किया है।
● इस परिप्रेक्ष्य में हमने भारत में कृषि क्लस्टर से संबंधित सभी पक्षों का समग्रता से विश्लेषण किया है।

केला क्लस्टर से संबंधित मुख्य बिंदु

● आंध्र प्रदेश सरकार, निर्यातक कंपनी तथा कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण इस पहल में एक साथ कार्य करेंगे।
● निर्यातक कंपनी द्वारा केला उत्पादन को बढ़ाने के लिये आंध्र प्रदेश के केला उत्पादकों को विशेषज्ञता एवं आधुनिक तकनीक प्रदान करने के साथ ही उन्हें विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जा रहा है।

कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (APEDA)
इसकी स्थापना भारत सरकार द्वारा कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण अधिनियम, 1985 के अंतर्गत ‘संसाधित खाद्य निर्यात प्रोत्साहन परिषद’ के स्थान पर की गई थी।
● यह वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अधीन कार्य करता है।
इस प्राधिकरण का मुख्यालय नई दिल्ली में है।

क्लस्टर क्या है?
बोसवर्थ और ब्रून के अनुसार, "उद्योगों की भौगोलिक विशेषता जो स्थान विशेष की परिस्थितियों के माध्यम से अधिक लाभ प्राप्त करती है" क्लस्टर कहलाती है।
● क्लस्टर से जुड़े उद्योगों और अन्य संस्थाओं की एक शृंखला होती है जिसमें संबंधित उद्योग घटक, मशीनरी, सेवा और विशेष बुनियादी ढाँचा शामिल होता है।
● क्लस्टर अक्सर चैनलों के माध्यम से ग्राहकों, कंपनियों के साथ-साथ उद्योग विशेष से संबंधित कौशल एवं प्रौद्योगिकियों के मध्य एकीकृत दृष्टिकोण स्थापित करता है।

क्लस्टर आधारित कृषि
● विकासशील देशों में टिकाऊ विकास की सबसे बड़ी संभावना कृषि क्षेत्र में निहित है।
● यहाँ पर गरीबी व्यापक और खराब स्वरूप में विद्यमान है तथा किसान छोटे पैमाने पर सीमित क्षेत्रों में कृषि करते हैं। 
● विकासशील देशों के ये किसान कम मार्जिन के "संतुलन के चक्र" (Cycle of Equilibrium) से घिरे हैं जहाँ पर सीमित क्षमता और कम निवेश के चलते कम उत्पादकता, कम बाज़ार उन्मुखीकरण जैसी परिस्थितियाँ व्याप्त हैं।
● इस चक्र को दीर्घकालीन प्रतिस्पर्द्धा के माध्यम से ही तोड़ा जा सकता है।



भारत में कृषि क्लस्टर

● भारत भौगोलिक, जलवायवीय और मृदा संबंधी विविधता वाले विशाल देशों में से एक है इसीलिये भारत के कृषि स्वरूप में पर्याप्त विविधता है।
● भारत के विभिन्न क्षेत्र किसी विशेष फसल की कृषि के लिये आदर्श स्थल हैं, उदाहरणस्वरूप गुजरात और महाराष्ट्र में कपास संबंधी आदर्श स्थितियाँ हैं।
● इसी प्रकार किसी फसल विशेष के संबंध में भी स्थानीय विविधता है, जैसे- मूँगे की विभिन्न किस्मों के लिये कर्नाटक, झारखंड और असम में विशेष परिस्थितियाँ पाई जाती हैं।
● धान की अमन, ओसों जैसी प्रजातियाँ विभिन्न कृषि क्षेत्रों में बेहतर उत्पादन करती हैं।
● भारत में कृषि अर्थव्यवस्था के क्षेत्रीकरण संबंधी पूर्व अध्ययनों की जाँच करने के बाद योजना आयोग द्वारा यह सिफारिश की गई थी कि कृषि-आयोजन संबंधी नीतियाँ कृषि-जलवायु क्षेत्रों के आधार पर तैयार की जानी चाहिये।
● इसी प्रकार संसाधन विकास के लिये देश को कृषि-जलवायु विशेषताओं, विशेष रूप से तापमान और वर्षा सहित मृदा कोटि, जलवायु एवं जल संसाधन उपलब्धता के आधार पर पंद्रह कृषि जलवायु क्षेत्रों में बाँटा गया है।
● इस प्रकार भारत की कृषि जलवायु विविधता को देखते हुए भारत में क्लस्टर आधारित कृषि की पर्याप्त संभावनाएँ हैं।
● इसी परिप्रेक्ष्य में खाद्य और कृषि संगठन द्वारा महाराष्ट्र में क्लस्टर से संबंधित कई विशेषताओं उनकी प्रतिस्पर्द्धा या उनकी कमी के कारणों की समीक्षा की।

भारत में इस प्रकार की कृषि से संभावनाएँ

● वे देश जो अधिक खाद्यान उत्पादन करते हैं, की अपेक्षा भारत में अधिक कृषि क्षेत्र है परंतु भारत में विस्तृत कृषि की कमी के कारण उत्पादन के अपेक्षित स्तर को प्राप्त नही किया जा सका है।
● हरित क्रांति का प्रभाव भी भारत के सीमित क्षेत्रों को ही लाभान्वित कर पाया है, इसी परिप्रेक्ष्य में भारत में विद्यमान सीमांत एवं छोटी जोत वाले कृषि क्षेत्र के मध्य क्लस्टर आधारित कृषि की असीम संभावनाएँ हैं।
● विभिन्न कृषि क्षेत्रों में आदर्श फसल और उससे संबंधित बुनियादों बातों को ध्यान में रखते हुए विशेष विनियामक रणनीति के माध्यम से कृषको की आय दुगुनी करने संबंधी प्रयोजनों में बेहतर सफलता प्राप्त की जा सकती है।
● इसके अतिरिक्त भारत में कृषकों की खाद्यान से संबंधित कृषि अवधारणा को व्यावसायिक कृषि में बदल कर स्थानीय प्रवास, रोज़गार और स्थानीय व्यवसाय जैसी फारवर्ड एवं बैकवर्ड सुधारों के माध्यम से कृषि पर निर्भर 50% जनसंख्या कि समस्याओं के बेहतर समाधान के साथ-साथ आर्थिक विकास में कृषि की प्रासंगिक भूमिका निभा सकती है क्योंकि भारत अभी भी विकासशील व कृषि प्रधान देश है।

समस्याएँ

● भारत में कृषि परंपरागत दृष्टिकोण के आधार पर खाद्यान आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये की है जिसमें कौशल, ज्ञान और नवीन तकनीकों का अभाव देखा जाता है।
● इसके अतिरिक्त कृषकों के समक्ष कृषि एवं फसल संबंधी जानकारियों का अभाव जैसी सामान्य समस्याएँ हैं।
● भारत में अभी भी समर्पित संस्थाओं, कृषि विशेष क्षेत्रों एवं अनुसंधानों तथा इन अनुसंधानों की जानकारी का कृषकों की पहुँच से दूरी जैसे कारक इस क्षेत्र की सफलता में बाधक बने हैं।
● खाद्य और कृषि संगठन द्वारा हाल के वर्षों में चिली और अर्जेंटीना जैसे देशों में इस प्रकार की कृषि के सफल प्रयोग किये हैं।
● इस प्रकार की कृषि के परिणामस्वरूप वहाँ पर कृषि उत्पादन और कृषकों कि आय में बेहतर सुधार देखा गया हैं।

समाधान

● भारत में विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित समर्पित शोध संस्थाओं की स्थापना की जानी चाहिये इसके अतिरिक्त पहले से स्थापित संस्थानों के कार्य निष्पादन में अपेक्षित सुधार किया जाना चाहिये।
● इस प्रकार के संस्थानों के शोध के आधार पर पाठ्यक्रम एवं तकनीकी ज्ञान का भी प्रसार किया जाना चाहिये।
● किसी क्षेत्र से संबंधित स्वयं सहायता समूहों (SHG) एवं गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से सामान्य और तकनीकी जानकारी का प्रसार किया जाए इसके अतिरिक्त विभिन्न क्षेत्रों में कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिये।
● क्षेत्र विशेष पर समर्पित एप भी बनाए जाने चाहिये ताकि सभी प्रकार की जानकारियों को अद्यतन किया जा सके। इस प्रकार के एप के परिचालन संबंधी क्रिया-कलापों हेतु ग्राम पंचायत और स्थानीय स्तर पर नियमित कार्यशालाओं का किया जाना चाहिये।
● वित्तीय प्रवाह, अवसंरचना और जागरूकता के साथ-साथ बाज़ार पहुँच जैसी अन्य आवश्यकताओं को पूरा कर भारत अपनी श्रम शक्ति और जनसंख्या का बेहतर प्रयोग अपने आर्थिक एवं मानव विकास के लिये कर सकता है।

कृषि निर्यात नीति- 2018

● कृषि निर्यात नीति, 2018 का उद्देश्य वर्ष 2022 तक कृषि निर्यात को 60 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक करना है।
● कृषि निर्यात नीति से चाय, कॉफी और चावल जैसे कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा मिलने के साथ-साथ यह वैश्विक कृषि व्यापार में देश की हिस्सेदारी को बढ़ाएगी।
● कृषि निर्यात नीति में की गईं सिफारिशों को दो श्रेणियों में व्यवस्थित किया गया है-

सामरिक (Strategic)

सामरिक श्रेणी में तहत निम्नलिखित उपाय शामिल होंगे-

● नीतिगत उपाय
● अवसंरचना एवं रसद समर्थन
● निर्यात को बढ़ावा देने के लिये समग्र दृष्टिकोण
● कृषि निर्यात में राज्य सरकारों की बड़ी भागीदारी
● मूल्य वर्द्धित निर्यात को बढ़ावा देना
● ‘ब्रांड इंडिया’ का विपणन और प्रचार

परिचालन (Operational)

परिचालन के तहत निम्नलिखित कार्य शामिल होंगे-

● उत्पादन और प्रसंस्करण में निजी निवेश को आकर्षित करना
● मज़बूत नियमों की स्थापना
● अनुसंधान एवं विकास
● विविध



Tuesday, June 23, 2020

सांसद आदर्श ग्राम योजना


क्या है सांसद आदर्श ग्राम योजना (SAGY) ?

● इस योजना की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा 11 अक्तूबर, 2014 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जन्म दिवस की वर्षगाँठ के अवसर पर की गई थी।
● सांसद आदर्श ग्राम योजना (एसएजीवाई) की घोषणा मोदी ने 15 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री के तौर पर अपने पहले स्वतंत्रता दिवस संबोधन में की थी।
● योजना के अंतर्गत सभी लोकसभा सांसदों को हर वर्ष एक ग्रामसभा का विकास कर उसे जनपद की अन्य ग्रामसभाओं के लिये आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना था।
● साथ ही राज्यसभा सांसदों को अपने कार्यकाल के दौरान कम-से-कम एक ग्राम सभा का विकास करना था।
● इस योजना का उद्देश्य शहरों के साथ-साथ ग्रामीण भारत के बुनियादी एवं संस्थागत ढाँचे को विकसित करना था जिससे गाँवों में भी उन्नत बुनियादी सुविधाएँ और रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध कराए जा सकें।
● इस योजना का उद्देश्य चयनित ग्रामसभाओं को कृषि, स्वास्थ्य, साफ-सफाई, आजीविका, पर्यावरण, शिक्षा आदि क्षेत्रों में सशक्त बनाना था।
● इस योजना के अंतर्गत ग्रामसभाओं के चुनाव के लिये जनसंख्या को आधार रखा गया जिसके अंतर्गत मैदानी क्षेत्रों के लिये 3000-5000 और पहाड़ी, जनजातीय एवं दुर्गम क्षेत्रों में 1000-3000 की जनसंख्या को आधार मानने का सुझाव दिया गया था।
● इस योजना के अंतर्गत प्रत्येक सांसद को वर्ष 2019 तक तीन और वर्ष 2024 तक पाँच ग्रामसभाओं का विकास करना था।

चर्चा में क्यों?

● हाल ही में जारी आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, अक्तूबर 2014 में शुरू की गई सरकार की सांसद आदर्श ग्राम योजना (Saansad Adarsh Gram Yojana-SAGY) के चौथे चरण के अंतर्गत 31 दिसंबर, 2019 तक केवल 252 सांसदों ने ही ग्रामसभाओं को आदर्श ग्राम योजना के लिये चुना था।
● ग्रामीण विकास विभाग की योजनाओं की ऑडिट रिपोर्ट से यह पता चलता है कि गांव के विकास की योजना का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा है और न ही लक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति हुई है।


क्या कहा गया हैं योजना में 

● सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गांवों में विकास और बुनियादी ढाँचे रखने हेतु सभी राजनीतिक दलों के सांसद को इस योजना के तहत गाँव को गोद लेना है और 2016 तक उसे आदर्श गाँव बनाना है।


क्या है योजना का मामला

● केंद्र ने ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत आने वाली विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के समुचित क्रियान्वयन और उनके प्रभाव के आकलन के लिये एक साझा समीक्षा आयोग (सीआरएम) का गठन किया था।
● अपनी रिपोर्ट में सीआरएम ने कहा कि एसएजीवाई के लिये कोई समर्पित कोष नहीं है।
● किसी और मद की रकम के जरिये इसके लिये कोष जुटाया जाता है।
● सीआरएम के मुताबिक उसके दलों ने राज्यों का दौरा किया और उन्हें योजना का कोई “महत्वपूर्ण प्रभाव” नजर नहीं आया।
● सीआरएम ने कहा कि इस योजना के तहत सांसदों द्वारा गोद लिये गए गांवों में भी, सांसदों ने अपनी क्षेत्र विकास निधि से इसके लिये पर्याप्त रकम आबंटित नहीं की।
● सीआरएम ने एक रिपोर्ट में कहा, “कुछ मामलों में जहां सांसद सक्रिय हैं, कुछ आधारभूत विकास हुआ है, लेकिन योजना का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा है।”
● सीआरएम के मुताबिक, ऐसे में इन गांवों को आदर्श ग्राम नहीं कहा जा सकता और इस योजना की समीक्षा की जानी चाहिए।
● उसने कहा, “सीआरएम की राय है कि यह योजना अपने मौजूदा स्वरूप में इच्छित उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करती।
● यह अनुशंसा की जाती है कि मंत्रालय इसका प्रभाव बढ़ाने के लिये योजना की समीक्षा कर सकता है.” सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी राजीव कूपर की अध्यक्षता में सीआरएम के 31 सदस्यीय दल ने नवंबर में आठ राज्यों के 21 जिलों के 120 गांवों का दौरा किया था।
● सीआरएम में शिक्षाविद् और शोध संगठनों के सदस्य भी शामिल हैं।
● आयोग ने ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत आने वाली सभी कल्याणकारी योजनाओं की समीक्षा की और बेहतर क्रियान्वयन के लिये सुझाव दिये।


भविष्य में क्या किया जाना चाहिए / सुझाव

● किसी भी देश के सर्वांगीण विकास के लिये यह आवश्यक है कि देश के हर वर्ग को जातिगत, लैंगिक अथवा अन्य किसी भेदभाव के बिना विकास के सामान अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिये।
● भारत की एक बड़ी आबादी आज भी दूरदराज़ के गाँवों में निवास करती है और इनमें से अधिकतर कृषि या विभिन्न प्रकार के कुटीर उद्योगों पर निर्भर रहती है।
● ऐसे में SAGY योजनाएँ न सिर्फ इन गाँवों को विकास का एक अवसर प्रदान करती हैं बल्कि उनके आत्मविश्वास को भी बढ़ाती हैं, इसलिये वर्तमान समय में यह बहुत ही आवश्यक है कि ग्रामीण विकास की नई योजनाओं की परिकल्पना के साथ उनके क्रियान्वन पर भी गंभीरता से ध्यान दिया जाए तथा योजनाओं की अनदेखी होने पर संबंधित विभाग/अधिकारी की जवाबदेहिता भी सुनिश्चित की जाए।


Monday, June 22, 2020

सेंटिनलीज जनजाति



“आज दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा भारत ने हासिल तो कर लिया है लेकिन अब भी एक तबका ऐसा है जो हाशिये पर है। इस तबके के अंतर्गत वे जनजातियाँ आती हैं जो सुदूरवर्ती इलाकों में जीवन यापन कर रही हैं और कई समस्याओं को झेल रही हैं।”

सेंटिनलीज जनजाति

● यह जनजाति एक प्रतिबंधित उत्तरी सेंटिनल द्वीप पर रहने वाली एक नेग्रिटो जनजाति है।
● 2011 के जनगणना आँकड़ों के अनुसार द्वीप पर इनकी संख्या 15 के आस-पास थी।
● जहाँ एक तरफ अंडमान द्वीप में चार नेग्रिटो जनजातियों- ग्रेट अंडमानी, ओंगे/ओंज, जारवा तथा सेंटिनलीज का निवास है तो वहीं दूसरी तरफ निकोबार में दो मंगोलॉइड जनजातियाँ मसलन- निकोबारी और शोम्पेन का निवास है।
● सेंटिनलीज के साथ ही अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह की अन्य जनजातियाँ- ग्रेट अंडमानी, ओंगे, जारवा तथा शोम्पेन भारत की विशेष रूप से अति संवेदनशील जनजातीय समूहों यानी Particularly Vulnerable Tribal Groups (PVTGs) में शामिल हैं।
● कुछ समय पहले अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह की सेंटिनलीज जनजाति व्यापक चर्चा का विषय बनी हुई थी।
● माजरा कुछ यूँ था कि इस जनजाति के कुछ सदस्यों ने एक अमेरिकी पर्यटक की हत्या कर दी थी।
● गौरतलब है कि बाहरी दुनिया तथा बाहरी हस्तक्षेप के प्रति इनका रवैया अमूमन शत्रुतापूर्ण ही रहा है।

● इस प्रकार का वाकया पहली बार देखने को नहीं मिला है। जब-जब बाहरी लोगों ने इन जनजातियों के साथ संपर्क साधने की कोशिश की तब-तब इन्होंने हिंसक तेवर अपनाए।
● इनके इसे रवैये के कारण देश की आज़ादी से पहले ब्रिटिश शासन ने इन्हें Criminal Tribes Act,1871 के तहत क्रिमिनल जनजाति तक का दर्जा दे दिया था और इनके बच्चों को 6 वर्ष की आयु के पश्चात् इनके माता-पिता से दूर कर दिया जाता था।
● हालाँकि आज़ादी के बाद भारत सरकार ने इनके क्रिमिनल जनजातियों के दर्जे को बदलकर गैर-अधिसूचित जनजातियाँ (De-notified Tribes) कर दिया।
● ये जनजातियाँ मसलन डी-नोटिफाईड और नोमेडिक/सेमि-नोमेडिक, सरल शब्दों में कहें तो घुमंतू जनजातियाँ आज भी कई समस्याओं का सामना कर रही हैं।
● समाज के अन्य सदस्यों के बीच इनकी दयनीय स्थिति किसी से छुपी नहीं है।
● ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या कारण है कि ये जनजातियाँ बाहरी लोगों से अपना संपर्क नहीं साध पाती हैं? क्यों ये आधुनिक दुनिया से अलगाव महसूस करती हैं? 
● सवाल यह भी है कि ये जनजातियाँ किन-किन समस्याओं का सामना कर रही हैं? इस लेख में इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की गई है।
● यहीं पर एक और सवाल मन में कौंधता है कि जनजाति किसे कहते हैं? इसकी परिभाषा क्या है? इस लेख के माध्यम से हम इन्हीं कुछ प्रश्नों का जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे


भारत में जनजातियाँ 

● जनजातियाँ वह मानव समुदाय हैं जो एक अलग निश्चित भू-भाग में निवास करती हैं और जिनकी एक अलग संस्कृति, अलग रीति-रिवाज, अलग भाषा होती है।
● सरल अर्थों में कहें तो जनजातियों का अपना एक वंशज, पूर्वज तथा सामान्य से देवी-देवता होते हैं। ये अमूमन प्रकृति पूजक होते हैं।
● भारतीय संविधान में जहाँ इन्हें 'अनुसूचित जनजाति' कहा गया है तो दूसरी ओर, इन्हें अन्य कई नामों से भी जाना जाता है-
मसलन- आदिवासी, आदिम-जाति, वनवासी, प्रागैतिहासिक, असभ्य जाति, असाक्षर, निरक्षर तथा कबीलाई समूह इत्यादि। 
● हालाँकि भारतीय जनजातियों का मूल स्रोत कभी देश के संपूर्ण भू-भाग पर फैली प्रोटो ऑस्ट्रेलॉयड तथा मंगोल जैसी प्रजातियों को माना जाता है।
● इनका एक अन्य स्रोत नेग्रिटो प्रजाति भी है जिसके वंशज अण्डमान- निकोबार द्वीपसमूह में अभी भी मौजूद हैं।
● गौरतलब है कि अनेकता में एकता ही भारतीय संस्कृति की पहचान है और इसी के मूल में निश्चित रूप से भारत के विभिन्न प्रदेशों में स्थित जनजातियाँ हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में रहते हुए अपनी संस्कृति के ज़रिये भारतीय संस्कृति को एक अनोखी पहचान देती हैं।
● वर्तमान में भी भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तथा पूर्व से लेकर पश्चिम तक जनजातियों के साथ-साथ संस्कृति का विविधीकरण देखने को मिलता है।
● भारत भर में जनजातियों की स्थिति का जायजा उनके भौगोलिक वितरण को समझकर आसानी से लिया जा सकता है।

जनजातियों का भौगोलिक वितरण

● भौगोलिक आधार पर भारत की जनजातियों को विभिन्न भागों में विभाजित किया गया है जैसे-उत्तर तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र, मध्य क्षेत्र, दक्षिण क्षेत्र और द्वीपीय क्षेत्र।

● उत्तर तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र के अंतर्गत हिमालय के तराई क्षेत्र, उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र सम्मिलित किये जाते हैं। कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड तथा पूर्वोत्तर के सभी राज्य इस क्षेत्र में आते हैं।
● इन क्षेत्रों में बकरवाल, गुर्जर, थारू, बुक्सा, राजी, जौनसारी, शौका, भोटिया, गद्दी, किन्नौरी, गारो, ख़ासी, जयंतिया इत्यादि जनजातियाँ निवास करती हैं।
● अगर बात करें मध्य क्षेत्र की तो इसमें प्रायद्वीपीय भारत के पठारी तथा पहाड़ी क्षेत्र शामिल हैं।
● मध्य प्रदेश, दक्षिण राजस्थान, आंध्र प्रदेश, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिशा आदि राज्य इस क्षेत्र में आते हैं जहाँ भील, गोंड, रेड्डी, संथाल, हो, मुंडा, कोरवा, उरांव, कोल, बंजारा, मीणा, कोली आदि जनजातियाँ रहती हैं।
● दक्षिणी क्षेत्र के अंतर्गत कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल राज्य आते हैं जहाँ टोडा, कोरमा, गोंड, भील, कडार, इरुला आदि जनजातियाँ बसी हुई हैं।
● द्वीपीय क्षेत्र में अमूमन अंडमान एवं निकोबार की जनजातियाँ आती हैं।
● मसलन- सेंटिनलीज, ओंग, जारवा, शोम्पेन इत्यादि।


जनजातियों के उत्थान के लिये सरकार द्वारा उठाए गए कदम

● संविधान के पन्नों को देखें तो जहाँ एक तरफ अनुसूची 5 में अनुसूचित क्षेत्र तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण का प्रावधान है तो वहीं दूसरी तरफ, अनुसूची 6 में असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन का उपबंध है। 
● इसके अलावा अनुच्छेद 17 समाज में किसी भी तरह की अस्पृश्यता का निषेध करता है तो नीति निदेशक तत्त्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 46 के तहत राज्य को यह आदेश दिया गया है कि वह अनुसूचित जाति/जनजाति तथा अन्य दुर्बल वर्गों की शिक्षा और उनके अर्थ संबंधी हितों की रक्षा करे।
● अनुसूचित जनजातियों के हितों की अधिक प्रभावी तरीके से रक्षा हो, इसके लिये 2003 में 89वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के द्वारा पृथक राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना भी की गई।
● संविधान में जनजातियों के राजनीतिक हितों की भी रक्षा की गई है। उनकी संख्या के अनुपात में राज्यों की विधानसभाओं तथा पंचायतों में स्थान सुरक्षित रखे गए हैं।
● संवैधानिक प्रावधानों से इतर भी कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्हें सरकार जनजातियों के हितों को अपने स्तर पर भी देखती है। इसमें शामिल हैं- सरकारी सहायता अनुदान, अनाज बैंकों की सुविधा, आर्थिक उन्नति हेतु प्रयास, सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व हेतु उचित शिक्षा व्यवस्था मसलन- छात्रावासों का निर्माण और छात्रवृत्ति की उपलब्धता तथा सांस्कृतिक सुरक्षा मुहैया कराना इत्यादि।
● इसी के साथ केंद्र तथा राज्यों में जनजातियों के कल्याण हेतु अलग-अलग विभागों की स्थापना की गई है।
● जनजातीय सलाहकार परिषद इसका एक अच्छा उदाहरण है।
इन्हीं पहलों का परिणाम है कि जनजातियों की साक्षरता दर जो 1961 में लगभग 10.3% थी वह 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 66.1% तक बढ़ गई। 
● सरकारी नौकरी प्राप्त करने की सुविधा देने की दृष्टि से अनुसूचित जातियों के सदस्यों की आयु सीमा तथा उनके योग्यता मानदंड में भी विशेष छूट की व्यवस्था की गई है।
● हालिया सरकार ने भी जनजातियों के उत्थान की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। मसलन अनुसूचित जनजाति (एसटी) के छात्रों के लिये एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय योजना शुरू हुई है।
● इसका उद्देश्य दूरदराज़ के क्षेत्रों में रहने वाले विद्यार्थियों को मध्यम और उच्च स्तरीय शिक्षा प्रदान करना है। 
● वहीं अनुसूचित जनजाति कन्या शिक्षा योजना निम्न साक्षरता वाले जिलों में अनुसूचित जनजाति की लड़कियों के लिये लाभकारी सिद्ध होगी।
● इन सराहनीय कदमों के बावजूद देश भर में जनजातीय विकास को और मज़बूत करने की दरकार है।
● यह सही है कि जनजातियों का एक खास तबका समाज की मुख्यधारा में आने से कतराता है, लेकिन ऐसे में इनका समुचित विकास और संरक्षण भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।



Sunday, June 21, 2020

सूर्य ग्रहण


सूर्य ग्रहण क्या है?

● यह एक खगोलीय घटना है।
● सूर्य और पृथ्वी के बीच में चंद्रमा के आ जाने की खगोलीय स्थिति से जब सूर्य का प्रकाश पृथ्वी पर नहीं पहुंच पाता है तो इस स्थिति को सूर्य ग्रहण कहा जाता है।
● 21 जून को सूर्य ग्रहण कर्क रेखा के एकदम ऊपर होना है उत्तरी गोलार्ध में यह है दिन सबसे लंबा व रात सबसे छोटी होती है।
● यहां का सबसे गर्म दिन होता है क्योंकि सूर्य की किरणे यहां एकदम लंबवत पड़ती हैं।
● साल 2020 का पहला सूर्य ग्रहण करीब 6 घंटों का तक प्रभावी रहेगा।
● इसे कंकनाकृति , वलयाकार या रिंग्स ऑफ फायर ग्रहण के नाम से भी जाना जाता है।

■  कहां कहां देखा जा सकता है?

● यह सूर्य ग्रहण भारत समेत चीन, अफ्रीका, कांगो, इथोपिया,  नेपाल, पाकिस्तान आदि देशों में दिखाई देगा।


सूर्य ग्रहण कितने प्रकार से होता है?

पूर्ण सूर्यग्रहण-

● इसके दौरान चंद्रमा सूर्य को पूरी तरह ढक लेता है। ऐसे में चमकते सूरज की जगह एक काली तश्तरी सी दिखाई देती हैं। 

एन्यूलर सूर्यग्रहण-

● जब सूर्य और चंद्रमा एक लाइन में हो तो होते हैं। लेकिन चंद्रमा सूर्य को ढक नहीं पाता है। ऐसे में सूरत एक बड़े छल्ले की तरह दिखाई देता है जिसे केंद्र में चंद्रमा की काली बाहरी सतह दिखाई देती है।
जैसे : 21 जून 2020 को इसी प्रकार का सूर्य ग्रहण होने वाला है।

आंशिक सूर्यग्रहण-

● यह तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा एक सीधी रेखा में नहीं होते और चंद्रमा सूरज के एक हिस्से को ही ढक पाता है। इसे धरती के एक बड़े हिस्से में देखा जा सकता है।


Friday, June 19, 2020

वन बेल्ट, वन रोड परियोजना


प्रस्तावना -

● हाल ही में, बीजिंग में “बेल्ट एवं रोड फोरम सम्मेलन” (BARF) का आयोजन किया गया जिसमें विश्व के विभिन्न देंशो ने भाग लिया|
● इसमें अमेरिका एवं जापान सहित अनेक एशियाई देशों ने भी हिस्सा लिया|
● इस सम्मेलन की खास बात यह रही कि भारत ने इसमें भाग नहीं लिया।
● इसका कारण था, ‘वन बेल्ट, वन रोड’ (ओ.बी.ओ.आर.)के तहत बनने वाला पाकिस्तान-चीन आर्थिक गलियारा (CPEC), जो पाक-अधिकृत कश्मीर से होकर गुज़रता है।
● भारत ने इसे अपनी संप्रभुता का हनन और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन बताया है।

वन बेल्ट, वन रोड परियोजना-

यह परियोजना 2013  में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा शुरू की गई थी।
● इसे ‘सिल्क रोड इकॉनमिक बेल्ट’ और 21वीं सदी के समुद्री सिल्क रोड (वन बेल्ट, वन रोड) के रूप में भी जाना जाता है।
● यह एक विकास रणनीति है जो कनेक्टिविटी पर केंद्रित है| इसके माध्यम से सड़कों, रेल,  बंदरगाह,  पाइपलाइनों और अन्य बुनियादी सुविधाओं को ज़मीन और समुद्र होते हुये एशिया,  यूरोप और अफ्रीका से जोड़ने का विचार है।
● हालाँकि, इसका एक उद्देश्य यह भी है कि इसके द्वारा चीन अपना वैश्विक स्तर पर प्रभुत्व बनाना चाहता है।

इन गलियारों से जाल बिछाएगा चीन-

● न्यू सिल्क रोड के नाम से जानी जाने वाली 'वन बेल्ट, वन रोड' परियोजना के तहत छह आर्थिक गलियारे बन रहे हैं।
● चीन इन आर्थिक गलियारों के जरिए जमीनी और समुद्री परिवहन का जाल बिछा रहा है।
प्रस्तावित गलियारे-

1.चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा
2. न्यू यूराशियन लैंड ब्रिज
3. चीन-मध्य एशिया-पश्चिम एशिया आर्थिक गलियारा
4. चीन-मंगोलिया-रूस आर्थिक गलियारा
5. बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार आर्थिक गलियारा
6. चीन-इंडोचाइना-प्रायद्वीप आर्थिक गलियारा


प्राचीन रेशम मार्ग क्या था?



● प्राचीनकाल और मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यापारिक-सांस्कृतिक मार्गों का एक समूह था।
● जिसके माध्यम से एशिया, यूरोप और अफ्रीका जुड़े हुए थे।
● इसका सबसे जाना-माना हिस्सा उत्तरी रेशम मार्ग है जो चीन से होकर पश्चिम की ओर पहले मध्य एशिया में और फिर यूरोप में जाता था और जिससे निकलती एक शाखा भारत की ओर जाती थी।
● रेशम मार्ग का जमीनी हिस्सा ६,५०० किमी लम्बा था और इसका नाम चीन के रेशम के नाम पर पड़ा जिसका व्यापार इस मार्ग की मुख्य विशेषता थी।
● इसके माध्यम मध्य एशिया, यूरोप, भारत और ईरान में चीन के हान राजवंश काल में पहुँचना शुरू हुआ।
● सिल्क रुट का चीन, भारत, मिस्र, ईरान, अरब और प्राचीन रोम की महान सभ्यताओं के विकास पर गहरा असर पड़ा।
● इस मार्ग के द्वारा न केवल व्यापार बल्कि ज्ञान, धर्म, संस्कृति, भाषाएँ, विचारधाराएँ, भिक्षु, तीर्थयात्री, सैनिक, घूमन्तू जातियाँ, और बीमारियाँ भी फैलीं।
● व्यापारिक नज़रिए से चीन रेशम, चाय और चीनी मिटटी के बर्तन भेजता था, भारत मसाले, हाथीदांत, कपड़े, काली मिर्च और कीमती पत्थर भेजता था और रोम से सोना, चांदी, शीशे की वस्तुएँ, शराब, कालीन और गहने आते थे।

क्या है सिल्क रूट का इतिहास?

● वास्तव में सिल्क रोड या सिल्क रूट वह पुराना मार्ग है जो सदियों पहले व्यापार के लिए इस्तेमाल किया जाता था।
● यह रास्ता सदियों तक व्यापार का मुख्य मार्ग रहा और इसी रास्ते के जरिए तमाम संस्कृतियां भी एक-दूसरे के संपर्क में आयीं। इस रूट के जरिए पूर्व में कोरिया और जापान का संपर्क भूमध्य सागर के दूसरी तरफ के देशों से हुआ।
● हालांकि आधुनिक युग में सिल्क रूट का अभिप्राय चीन में हान वंश के राज के समय की सड़क से है, जिसके जरिए रेशम और घोड़ों का व्यापार होता था।
● चीनी अपने व्यापार को लेकर शुरू से ही काफी संजीदा रहे हैं और इसी को ध्यान में रखते हुए चीन की महान दीवार का भी निर्माण किया गया था, ताकि व्यापार आसानी से हो और बाहरी आक्रमणकारी व्यापार को नुकसान न पहुंचा सकें।
● 5वीं से 8वीं सदी तक चीनी, अरबी, तुर्की, भारतीय, पारसी, सोमालियाई, रोमन, सीरिया और अरमेनियाई आदि व्यापारियों ने इस सिल्क रूट का काफी इस्तेमाल किया।
● साल 2014 में यूनेस्को ने इसी पुराने सिल्क रूट के एक हिस्से को विश्व धरोहर के रूप में मान्यता भी दी।

क्या चाहता है चीन?

● वन बेल्ट, वन रोड के माध्यम से एशिया के साथ-साथ विश्व पर भी अपना अधिकार कायम करना।
● दक्षिणी एशिया एवं हिंद महासागर में भारत के प्रभुत्व को कम करना।
● इस परियोजना के द्वारा चीन सदस्य देशों के साथ द्विपक्षीय समझोंते करके, उन्हे आर्थिक सहायता एवं ऋण उपलब्ध कराकर उन पर मनमानी शर्तें थोपना चाहता है जिसके फलस्वरूप  वह सदस्य देशों के बाज़ारों में अपना प्रभुत्व बना सके।
● असल में पिछले काफी सालों से चीन के पास स्टील, सीमेंट, निर्माण साधन इत्यादि की सामग्री का आधिक्य हो गया है।
● अत: चीन इस परियोजना के माध्यम से इस सामग्री को भी खपाना चाहता है।

भारत इस सम्मेलन से अलग-थलग क्यों रहा?

● विभिन्न राजनीतिक जानकारों का मानना है कि भारत को इस सम्मेलन में शामिल होना चाहिये था ताकि वह इस परियोजना का लाभ उठा सके और चीन के साथ संबंधों को और मज़बूती प्रदान की जा सके।
● वस्तुतः उनकी इस दलील के पीछे कुछ ठोस कारण भी हैं, जैसे – उनका मानना है कि जापान एवं वियतनाम जैसे देशों ने भी इसमें भाग लिया है, जबकि इन देशो के भी चीन के साथ सीमा विवाद काफी लम्बे समय से अनसुलझा है।
● हालाँकि, इस संदर्भ में भारत का यह कहना है कि इस परियोजना के माध्यम से चीन द्वारा उसकी क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय संप्रभुता  का हनन किया जा रहा है।
● साथ ही साथ चीन हमारे बाज़ारों पर कब्ज़ा करना चाहता है।

Wednesday, June 17, 2020

LAC (Line Of Actual Control) & LOC (Line Of Control)



LAC (  line of actual control)-
◆ वास्तविक नियंत्रण रेखा भारत और चीन के बीच वास्तविक सीमा रेखा है।
◆ इसकी लंबाई 4057 किलोमीटर है।
◆ यह सीमा रेखा जम्मू-कश्मीर के भारत अधिकृत क्षेत्र और चीन अधिकृत क्षेत्र अक्साई चीन को पृथक करती है।
◆ यह लद्दाख, कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से होकर गुजरती है।
◆ यह भी एक प्रकार की युद्ध विरा रेखा है।
◆ क्योंकि 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद दोनों देशों की सेनाएं यहां तैनात थी जिसे LAC मान लिया गया।
◆ "LAC" शब्द 1993 और 1996 में हस्ताक्षरित,  चीन-भारत समझौते में कानूनी मान्यता प्राप्त।
1996 के समझौते में कहा गया है," दोनों पक्षों की कोई भी गतिविधि वास्तविक नियंत्रण रेखा से आगे नहीं बढ़ेगी।"


LOC (Line of Control)-

◆ यह 740 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा है जो भारत और पाकिस्तान के बीच खींची गई है।
◆ यह रेखा दोनों देशों के बीच पिछले 50 वर्षों से विवाद का विषय बनी हुई है।
◆ वर्तमान नियंत्रण रेखा 1947 में दोनों देशों (भारत-पाक) के बीच हुए युद्ध को विराम देकर तत्कालिक नियंत्रण स्थिति पर खींची गई थी जो आज भी लगभग वैसी ही है।


Tuesday, June 16, 2020

पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम



भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग 21% पहाड़ी क्षेत्र है। 
◆ यहां देश की लगभग 9% जनसंख्या निवास करती है।
◆ नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र इन क्षेत्रों की अद्भुत विशेषता है।
◆ ये देश के जीवनदायी आधारभूत प्राकृतिक संसाधनों की सहायता करते हैं।
◆ इन क्षेत्रों के विकास के लिए 1974-75 में पहाड़ी क्षेत्र विकास कार्यक्रम शुरू किया गया।

उद्देश्य -
● इन इलाकों के पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को पुनः स्थापित करना तथा उसका विकास करना।
● पहाड़ी क्षेत्रों की समस्याओं जैसे कृषि संबंधी समस्या को हल करना।
● पहाड़ी क्षेत्रों की अध:संरचनाओं में निवेश करना।
● पहाड़ी क्षेत्रों के विकास में राज्य सरकारों के प्रयास को प्रोत्साहित करना।
● जिसके अन्तर्गत उत्तर प्रदेश के आठ जिले, असम के दो जिले, तमिलनाडु में नीलगिरी तथा पश्चिम बंगाल में दर्जिलिंग जिले के तीन उप-सम्भाग तथा पश्चिमी घाट, जिसमें महाराष्ट्र कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु तथा गोवा के राज्यों के भाग सम्मिलित हैं।

Sunday, June 14, 2020

मरुभूमि विकास कार्यक्रम



पश्चिमी राजस्थान, गुजरात तथा हरियाणा के कुछ भाग भारत के विशाल मरुस्थल में शामिल है।
◆ यह ऊष्ण मरुस्थल है और लगभग 218 हजार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है।
◆ इसके अतिरिक्त लद्दाख तथा हिमाचल प्रदेश में शीत मरुस्थल स्थित है।
 ◆ इन क्षेत्रों के विकास के लिए 1977-78 में मरुभूमि विकास कार्यक्रम शुरू किया गया।
◆ 1995-96 में आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक के कुछ शुष्क भागों को भी इस कार्यक्रम में शामिल किया गया।

मुख्य उद्देश्य-
● मरुस्थल के प्रसार को नियंत्रित करना।
● मरुस्थल तथा अर्ध-मरुस्थलीय क्षेत्रों की पारिस्थितिकी संतुलन का पुनः विकास करना तथा उन्हें सुरक्षित करना।
● जल, भूमि व वनस्पति क्षेत्र आदि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, संरक्षण तथा विकास करना।
● भूमि की उत्पादकता में वृद्धि करना।




                               Resources: D.R.Khullar

Friday, June 12, 2020

सूखा संभावित क्षेत्र कार्यक्रम


◆ देश का लगभग 16% भाग सूखाग्रस्त है।
12% जनसंख्या पर उसका प्रभाव पड़ता है।
◆ सूखे के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और क्षेत्रीय संतुलन भी डगमगा जाता है।
◆ इस समस्या से निपटने के लिए सूखा संभावित क्षेत्र कार्यक्रम वर्ष 1974 में शुरू किया गया।

इसके उद्देश्य निम्न थे-
1. प्राकृतिक संसाधनों,एकीकृत विकास द्वारा फसलों, पशुओं, भूमि की उपजाऊ शक्ति, जल तथा मानव संसाधनों पर सूखे के प्रभाव को कम करना।
2. पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए भूमि, जल तथा अन्य संसाधनों का संरक्षण, विकास तथा दोहन करना।

★ सूखा संभावित क्षेत्र कार्यक्रम को 13 राज्यों के 96 जिलों में स्थित 629 ब्लॉकों में लागू किया गया है। इसके अंतर्गत कुल 5.54 लाख वर्ग किमी० क्षेत्रफल आता है।

Thursday, June 11, 2020

परमाणु विद्युत ( Atomic Electricity )

◆परमाणु विद्युत वर्तमान वैज्ञानिक युग की देन है।
◆ यह यूरेनियम, थोरियम, बेरिलियम, जीरकोनियम तथा रेडियम जैसे रेडियोधर्मी तत्व के विखंडन तथा विश्लेषण से प्राप्त की जाती है।
◆ एक परीक्षण से पता चला कि 1 किलोग्राम यूरेनियम के विश्लेषण से इतनी विद्युत प्राप्त हो सकती है जितनी 25 लाख किलोग्राम कोयला जलाकर उत्पन्न की जाती है।

भारत में परमाणु खनिजों का वितरण -

◆ परमाणु विद्युत के लिए सबसे महत्वपूर्ण खनिज यूरेनियम है।
◆ भारत में इसका का खनन झारखंड के सिंहभूम जिले में स्थित जादूगुड़ा स्थान पर किया जाता है।
◆ मध्यवर्ती राजस्थान की चट्टानों में भी यूरेनियम के भंडार हैं।
◆ केरल तथा तमिलनाडु के तटीय भागों में पाई जाने वाली मोनाजाइट नामक बालू से भी यूरेनियम मिलता है। यहां मोनाजाइट रेत में 10% थोरियम ऑक्साइड तथा 0.3% यूरेनियम ऑक्साइड मिलता है।
◆ हाल ही में झारखंड में रांची के पठार पर मोनोजाइट के विशाल भंडारों की खोज की गई है।
◆ केरल के पर्वतीय चट्टानों में 4% यूरेनियम ऑक्साइड मिलता है।
◆थोरियम के भण्डार केरल तथा झारखंड में मिलते हैं। यहां की ग्रेनाइट चट्टानों मे लगभग 10% थोरियम का अंश होता है।
◆ भारत में लगभग 3.6 लाख टन थोरियम के भण्डार है।
◆ जो विश्व में सर्वाधिक हैं।
◆ इससें इतनी विद्युत प्राप्त हो सकती है जितनी 60अरब टन कोयले को जलाने से प्राप्त होती है।
◆ बेरिलियम के उत्पादन में भारत विश्व में अग्रणी है यहां लगभग 1000 टन बेरिलियम प्रतिवर्ष पैदा किया जाता है। जो आंध्र प्रदेश, झारखंड तथा राजस्थान में मिलता है।
◆ जिरकोनियम के भंडारों की दृष्टि से केरल अग्रणीय राज्य है।
◆ यहां पर लगभग 50 लाख टन जिरकोनियम के भंडार हैं।

भारत में परमाणु विद्युत का विकास -

◆ भारत में परमाणु ऊर्जा का विकास का श्रेय डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा को जाता है।
◆ उनके प्रयत्नों के परिणामस्वरुप मुंबई के निकट ट्राम्बे में आणविक शक्ति प्रतिष्ठान के अंतर्गत पहला अनुसंधान 1955 में तैयार हुआ।
◆ इस समय विश्व के 16 देश परमाणु विद्युत पर उत्पादन कर रहे है।
◆ जिनमें भारत भी एक था एक है।

भारत के परमाणु विद्युत गृह -

तारापुर 【महाराष्ट्र】-
● यह देश का पहला परमाणु विद्युत गृह।
● जो अमेरिका की सहायता से स्थापित किया गया।
● 1969 से कार्य कर रहा है।
● इसकी उत्पादन क्षमता 420 मेगावाट है।

राजस्थान परमाणु विद्युत गृह -
● भारत का दूसरा परमाणु विद्युत गृह है।
● जो राजस्थान में कोटा के निकट राणा प्रताप सागर के पास रावतभाटा में बनाया गया।
● यह कनाडा के सहयोग से बनाया गया।
●अगस्त 1972 से कार्य कर रहा है।
● कुल उत्पादन क्षमता 220 मेगावाट।

कलपक्कम विद्युत परमाणु विद्युत गृह -
● यह तमिलनाडु के चेन्नई में कलपक्कम नामक स्थान पर स्थित है।
● इसकी उत्पादन क्षमता 470 मेगावाट है।

नरौरा परमाणु विद्युत गृह 【उतरप्रदेश】-
● इसकी उत्पादन क्षमता 470 मेगावाट है।

काकरापारा परमाणु गृह -
● यह गुजरात में स्थित है।
● 1992 से कार्यरत है।

             

                                           स्त्रोत:- डी०आर०खुल्लर

Wednesday, June 10, 2020

मानव के आर्थिक क्रियाकलाप




◆ मानव द्वारा अपनी मूलभूत आवश्यकताओं/जीवन निर्वाह  तथा आय अर्जन के उद्देश्य से किए जाने वाले क्रियाकलाप आर्थिक क्रिया कहलाते हैं।
◆ इन आर्थिक गतिविधियों को पांच भागों में बांटा गया है -
प्राथमिक कार्य
◆ आदिमानव व आधुनिक मानव द्वारा प्रकृति से प्राप्त संसाधनों के प्रत्यक्ष दोहन से संबंधित आर्थिक गतिविधियां प्राथमिक आर्थिक क्रियाएं कहलाती है।
◆ इन्हें प्राथमिक क्रियाऐं इसलिए कहा जाता है क्योंकि समस्त क्रियाओं से संबंधित उत्पादन चक्र की यह प्रारंभिक अवस्था होती है।
◆ आदिम समाज अथवा अविकसित देशों में अधिकांश जनसंख्या प्राथमिक कार्य में संलग्न रहती है।
◆ विकसित होते हुए राष्ट्र में यह श्रम शक्ति गैर प्राथमिक कार्यों की ओर स्थानांतरित होती जाती है।
◆ इसके अंतर्गत निम्न क्रियाओं को सम्मिलित करते हैं -
■ शिकार करना
■ मछली पकड़ना
■ कृषि
■ पशुपालन
■ लकड़ी काटना

◆ प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता जीन ब्रून्स द्वारा खनन प्रक्रिया को लुटेरी अर्थव्यवस्था कहा गया है।
शिकार- वर्तमान में शिकार दुर्गम पारिस्थितिकी क्षेत्रों में निवासित जनजातियों द्वारा किया जा रहा है। जैसे विषुवत रेखीय घने वन क्षेत्र, ध्रुवीय प्रदेशों में ( एस्किमों, तुंगस, इनयुत, चुकसी ), मरुस्थलीय क्षेत्र (बुशमैन, हाटनटोट)।

लंबरजैक - कनाडा की में ट्रांस हुमैंस प्रकार की प्रवृत्ति रखने वाला एक विशेष प्रकार का समुदाय जो कि मुख्यतः कनाडा के कोणधारी वनों में लकड़ी काटने का कार्य करता है।
◆ बसंत काल में यह लोग कनाडा के प्रेयरीज भागों में आकर कृषि कार्य करते हैं।

◆ इन कोणधारी वनों से प्राप्त लकड़ी का कागज उद्योग में भरपूर उपयोग होता है।
◆ अमेरिकी संस्कृति के आधार पर इस प्रकार के व्यवसाय में संलग्न लोगों को रेड कॉलर वर्कर्स कहा जाता है।


द्वितीयक व्यवसाय -
◆ प्राथमिक कार्यों से प्राप्त वस्तुओं को कच्चे माल के रूप में उपयोग कर जब नवीन उत्पाद का निर्माण किया जाता है तो वह द्वितीयक प्रकार की क्रियाएं कहलाती हैं।
◆ इस कच्चे माल के उपयोग द्वारा अन्य मूल्यवान उपयोगी वस्तु में निर्मित किया जाता है इसलिए द्वितीयक प्रकार के व्यवसायों में विशेष निर्माण कार्यों को शामिल किया जाता है।
◆ इसके अंतर्गत निम्नलिखित सम्मिलित हैं -
●विनिर्माण उद्योग
● सड़क निर्माण 
● गृह निर्माण 
● भवन निर्माण 

◆ द्वितीयक वर्ग में संलग्न श्रमिकों को ब्लू कॉलर वर्कर्स कहा जाता है।
◆ 1930 के पश्चात अमेरिका में यह शब्दावली प्रयुक्त की गई।

तृतीयक व्यवसाय -
◆ इसके अंतर्गत सेवाओं को शामिल किया जाता है।
◆ यह वे आर्थिक क्रियाएं होती है जिनका उत्पादन से प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता हैं।
◆ इन आर्थिक क्रियाओं के द्वारा उपभोक्ता व उत्पादन के मध्य कड़ी स्थापित की जाती है।
◆ इसके अंतर्गत - स्वास्थ्य सेवाएं, वाणिज्य, व्यापार, परिवहन, संचार, वित्तीय संस्थाएं, शिक्षा, सेवाएं आदि को सम्मिलित किया जाता है।
◆ विकसित देशों में अधिकांश श्रम तृतीयक प्रकार की सेवाओं से संबंधित होता है।
◆ इस प्रकार की आर्थिक क्रियाओं में संलग्न लोगों को पिंक कॉलर वर्कर्स कहा जाता है। 
◆ अर्थशास्त्र के अनुसार  प्राथमिक व द्वितीयक कार्यों के अतिरिक्त समस्त आर्थिक क्रियाएं तृतीयक मानी जाती है।

चतुर्थक व्यवसाय -
◆ अत्याधुनिक विकसित राष्ट्रों में उच्च तकनीकी सुविधाओं जैसे विज्ञान, कला, साहित्य, सूचना प्रौद्योगिकी, शोधन, रिसर्च, विकसित प्रशासनिक सेवाएं, उच्चतम शिक्षा आदि को चतुर्थक व्यवसाय में शामिल करते हैं।
◆ इस कार्य में संलग्न लोगों को व्हाइट कॉलर वर्कर्स कहलाते हैं।

पंचम व्यवसाय -
◆ अत्यंत विकसित राष्ट्रों में आर्थिक व्यवसाय का यह पृथक वर्ग माना जाता है।
◆ इसके अंतर्गत ऐसे लोगों को शामिल किया जाता है जो कि सार्वजनिक व निजी उद्योगों में विधि व वित्तीय सलाहकार, उच्च प्रबंधक या उच्च एडवोकेट के कार्यों को संपादित करते हैं।
◆ यह समाज का उच्च वेतन भोगी या उत्तम पारिश्रमिक प्राप्त करने वाला वर्ग होता हैं।
◆ इस श्रेणी के लोगों को गोल्ड कॉलर वर्कर्स कहा जाता हैं।

Monday, June 8, 2020

हरित क्रांति (GREEN REVOLUTION)



★भारत को एक कृषि प्रधान देश माना जाता है एवं काफी लंबे समय से यह कहा जाता है कि इस देश की 70 प्रतिशत आबादी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है।
★ भारत की कृषि परंपरा का इतिहास काफी पुराना है। समृद्ध कृषक राष्ट्र होने के कारण एक समय भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था।
★ लेकिन समय के साथ तस्वीर बदलती रही और एक समय ऐसा आया कि जब चालीस के दशक में अविभाजित भारत के बंगाल क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा और अनाज की कमी के कारण लाखों लोग मौत का शिकार बने। इस अकाल की वीभिषिका के लिए तत्कालीन ब्रीटिश साम्राज्य की व्यवस्थाओं को दोषी माना गया।
★ आजादी के बाद भारत के नीति निर्माताओं ने बंगाल की उस घटना से सबक लेते हुए धीरे-धीरे इस दिशा में कार्य करना प्रारंभ किया कि आने वाले समय में भारत को अकाल जैसी समस्याओं से जूझना ना पड़े और ऐसी परिस्थितियां ना बने कि देश के नागरिक भूखमरी का शिकार बने।
★ इसके परिणामस्वरूप 1960-70 के दशक में हरित क्रांति जैसा शब्द सामने आया जिसमें बढ़ती आबादी के अनुपात में कम लागत पर अधिक अन्न उत्पादन का संकल्प लिया गया।



★ हरित क्रांति से तात्पर्य कृषि उत्पादों में सतत तीव्र वृद्धि हैं।
★ हरित क्रांति शब्द 1958 में विलियम गैंड द्वारा सर्वप्रथम उपयोग में लिया गया।
★ 1950 के दशक में वैश्विक स्तर पर हरित क्रांति को प्रसारित करने का श्रेय अमेरिकन विद्वान नॉर्मन बोरलॉग को दिया जाता है।
★ इनके द्वारा गठित संस्था 'रॉकफेलर फोर्ड फाउंडेशन' द्वारा मेक्सिको में यह कार्य प्रारंभ किया गया।
हरित क्रांति शब्द - विलियम गैंड (1958)
हरित क्रांति के जनक- नॉर्मन बोरलॉग
भारत में हरित क्रांति के जनक- एम०एस० स्वामीनाथन
★ यू०एन०ओ० में 1960 में जारी रिपोर्ट के अनुसार 1975 तक भारत में भयंकर अकाल की आशंका प्रकट की गई क्योंकि इस स्थिति में भारत जनसंख्या विस्फोट व कम उत्पादक राष्ट्रों की श्रेणी में शामिल था।
★ इस रिपोर्ट का मूलाधार जनसंख्या संक्रमण सिद्धांत की तीसरी अवस्था में भारत के प्रवेश को माना गया।
★ तात्कालिक कृषि मंत्री एस० सुब्रमण्यम व तात्कालिक सर्वोच्च कृषि वैज्ञानिक एम०एस० स्वामीनाथन के द्वारा भारत में शीघ्र हरित क्रांति प्रारंभ कर दी गई।
- भारत में हरित क्रांति के प्रारंभ के समय प्रधानमंत्री- श्रीमती इंदिरा गांधी
- तात्कालिक योजना मंत्री -प्रो० अशोक मेहता
- तात्कालिक कृषि सचिव- शिवरमन
★ भारत में हरित क्रांति के तहत दो प्रकार की योजनाएं बनाई गई-
1.अल्पकालिक योजनाएं          2.दीर्घकालिक योजना

★ भारत में हरित क्रांति के दो चरण माने जाते हैं-
 प्रथम (1967 से)
 द्वितीय (1983-84 से)

प्रथम चरण 1967 में सरकार द्वारा उच्च सिंचाई सुविधाओं वाले क्षेत्र के रूप में पहचान किए गए क्षेत्र पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान (गंगानगर) को चिन्हित किया गया और उन्नत प्रकार (HYV) बीज जिसमें विशेषकर गेहूं के बीज सोनगरा-64, लामीरोजा-250 उन्नत बीज बड़ी मात्रा में आयात किये।
★ साथ ही बड़ी मात्रा में कीटनाशकों व रासायनिक उर्वरकों का भी आयात किया गया।
★ दीर्घकालिक कार्यक्रम के तहत भारत में स्थानिक आवश्यकता की उन्नत बीज निर्मित करने के लिए आवश्यकता के अनुरूप रासायनिक उर्वरकों का उत्पादन करने के लिए, भूमि की क्षमता व मृदा की क्षमता जांचने के लिए व्यापक तौर पर अनुसंधान केंद्र स्थापित किए गए जिससे अंततः भारत एवं कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर हो सकें।
★ हरित क्रांति का प्रभाव अत्यंत सीमित क्षेत्रों जैसे- पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक रहा।
★ इसका सर्वाधिक लाभ धनी कृषकों को प्राप्त हुआ।
★ हरित क्रांति मुख्यतः गेहूं व आंशिक रूप से चावल जैसी खाद्यान्न के तीव्र उत्पादन तक सीमित थी।
★ शेष भारत की अन्य खाद्यान्न फसलों को पूर्णता नजरअंदाज कर दिया गया।
★ हरित क्रांति के इस सीमित प्रभाव को अधिक व्यापक बनाने के लिए हाल ही में नई हरित क्रांति 2010 प्रारंभ करने की योजना बनाई गई है जिसकी अनुशंसा एम०एस० स्वामीनाथन द्वारा की गई है।
★ इस नई हरित क्रांति के तहत पूर्वी भारत के 7 राज्यों को लक्ष्यित किया गया है- असम, पश्चिमी बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, पूर्वी उत्तर प्रदेश।
★ नई हरित क्रांति में गेहूं चावल के साथ अतिरिक्त शेष खाद्यान्न फसलों तथा मुद्रा दायिनी व्यापारिक फसलों पर जोर दिया जा रहा है।
★ नई हरित क्रांति को RKVY के अंतिम चरण में लागू करने का प्रावधान है।
राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) 2006-07 में लागू की गई इसमें कृषि विकास दर 4% रखने का प्रावधान है।
★ भारत सरकार द्वारा प्रारंभ राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन जलवायु परिवर्तन के तहत निर्मित किए गए 8 मिशन में से एक हैं।
★ राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 4 जुलाई 2013 को संसद में पास किया गया है।

Sunday, June 7, 2020

ज्वार भाटा ( TIDE AND EBB )

● महासागरीय जल कि वह दशा जिसमें सागर का तल सामान्यतया दिन में दो बार ऊंचा उठता है वह नीचे गिरता है इसे ज्वार भाटा कहते हैं।
● ज्वार भाटा उन कुछ महत्वपूर्ण परिघटनाओं से संबंधित है जिनका अध्ययन मानव ने प्रारंभिक समय से ही किया है।
● प्राचीन यूनानी दार्शनिको द्वारा इस संबंध में कुछ सटीक व्याख्या प्रस्तुत की है।
पाइथस नामक यूनानी विद्वान के द्वारा ज्वार भाटा की उत्पत्ति के संदर्भ में प्रारंभिक विचार प्रस्तुत किया गया। इन्होंने चंद्रमा के साथ ज्वारीय प्रक्रिया को सम्बंधित करने का प्रयास किया।
हिकेटियस, हेरोडोटस, एनेक्जीमेण्डर व पोसिडोनियस नामक महान यूनानी दार्शनिक दार्शनिकों ने भी ज्वार भाटा की उत्पत्ति को समझाने का प्रयास किया।
● उत्तर पुनर्जागरण काल में गैलीलियो ने ज्वार भाटा की उत्पत्ति का प्रथम वैज्ञानिक सिद्धांत प्रस्तुत किया परंतु इनके अनुसार इस परिघटना के लिए पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर परिक्रमा को उत्तरदायी माना।
कैपलर और कोपरनिक्स जैसे महान खगोलीय वैज्ञानिकों ने ज्वार भाटा को समझाने का प्रयास किया। अंततः 1687 में न्यूटन द्वारा अपनी पुस्तक "प्रिंसिपिया मैथमैटिका" के द्वितीय संस्करण में ज्वार भाटा की उत्पत्ति का 'संतुलन सिद्धांत' प्रस्तुत कर दिया गया। जो कि सटीक व्याख्या प्रस्तुत करता है ।

पृथ्वी के चारों ओर सतह पर विद्यमान सागरीय जल में उच्च तल की दशा व निम्न स्तर की दशा के लिए चंद्रमा का आकर्षण बल प्रमुखतया तथा सूर्य का आंशिक आकर्षण बल उत्तरदायी होता है।
इसके साथ केंद्र अपसारी बल भी ज्वार भाटा की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी माना जाता है।

ZENITH - चंद्रमा के सम्मुख पृथ्वी की सतह का भाग।
NADIR -  जेनिथ का प्रति धुव्रस्थ पृथ्वी की सतह का भाग यानी पृथ्वी का विपरीत सतह का भाग।
ज्वारीय केंद्र - पृथ्वी पर ज्वारीय केंद्र पूर्व से पश्चिम संचालित होता है।

पृथ्वी का वह भाग जो चंद्रमा के सम्मुख आता जाता है वहां सागर का तल सामान्य की अपेक्षा उच्च हो जाता है और जब इसके प्रभाव से यह हटता है तो वहां निम्न तल की प्राप्ति होती है इस दशा को क्रमशः उच्च ज्वार तल (ज्वार ) तथा निम्न ज्वार तल ( भाटा ) कहा जाता है।

जैनीथ की दशा में उच्च ज्वार तल के बाद पुनः उच्च ज्वार तल की दशा जैनीथ के प्रति धुव्रस्थ भाग में पहुंचने पर (नादिर) प्राप्त होती है इस प्रकार किसी स्थान पर 1 दिन में दो बार ज्वार दो बार भाटा आता है।

पृथ्वी की बाहरी सतह पर विद्यमान सागरीय जल में चंद्रमा का आकर्षण बल अधिक प्रभावी होता है क्योंकि न्यूटन के सिद्धांत के अनुसार किसी पिंड का आकर्षण प्रभाव उसकी दूरी के वर्ग के विलोमानुपाती होता है।



● चंद्रमा की आकर्षण बल के कारण सामान्यतया किसी स्थान पर ज्वार जिस समय आता है उसके 12 घंटे 26 मिनट बाद दोबारा उसी स्थान पर ज्वार प्राप्त होता है।
और अपकेंद्रीय बल के कारण किसी स्थान पर ज्वार के 6 घंटे 13 मिनट बाद निम्न ज्वार तल या भाटा कि प्राप्ति होती है।
● इस प्रकार किसी स्थान पर प्रत्येक ज्वार व भाटा और भाटा व ज्वार के मध्य 6 घंटे 13 मिनट का समयान्तराल होता है।



ज्वार भाटा के प्रकार -

● सामान्य ज्वार के प्रकार सूर्य-पृथ्वी-चंद्रमा की स्थितियों के आधार पर निर्धारित किए जाते हैं-

1. दीर्घ ज्वार 

सिजिगी- चंद्रमा में पृथ्वी की परिक्रमणशीलता के दौरान जब सूर्य-पृथ्वी-चंद्रमा एक सीधी रेखा में आ जाते हैं तो यह स्थिति या दशा सिजिगी कहलाती है।

◆ इस दशा की दो रूपों में प्राप्ति होती है -

१. यूति
जब इस परिक्रमणशील स्थिति में चंद्रमा व सूर्य पृथ्वी के एक ओर हो जाये अथवा पृथ्वी व सूर्य के मध्य चंद्रमा आ जाए तो इसे युति कहा जाता है ।
● यह दशा सामान्यतः अमावस्या को प्राप्त होती हैं ।
●इस दशा में सूर्य व चंद्रमा का सम्मिलित आकर्षण बल सामान्य की अपेक्षा उच्च ज्वार उत्पन्न करता है ।

२. वियूति
जब इस परिक्रमणशील दशा में चंद्रमा व सूर्य के मध्य पृथ्वी की स्थिति हो तो इसे वियूति की दशा कहते हैं ।
● दीर्घ ज्वार की दशा में सामान्य ज्वार के अपेक्षा 20% उच्च ज्वार आता है और 20% सामान्य निम्न ज्वार तल ( भाटा )की अपेक्षा निम्नतम ज्वार तल प्राप्त होता है। अर्थात् उच्च ज्वार व निम्न ज्वार तल के मध्य सर्वाधिक अंतर दीर्घ ज्वार तल के समय पाया जाता हैं।
● यह दशा सामान्यतया पूर्णिमा ( FULLMOON ) को प्राप्त होती है।



2. लघु ज्वार ( NEAP TIDE )-

● जब पृथ्वी सूर्य चंद्रमा परिक्रमणशीलता की दशा में समकोणिक स्थिति प्राप्त कर लेते हैं तो सामान्य ज्वार तल की अपेक्षा ज्वार तल नीचे रहता है तथा निम्न ज्वार तल सामान्य की अपेक्षा निम्न नहीं हो पाते या ऊंचा रह जाता है अर्थात लघु ज्वार में उच्च ज्वार तल व निम्न ज्वार तल में अंतर निम्नतम होता है।
● यह दशा सप्तमी या अष्टमी को घटित होती है।
● उच्च ज्वार तत्व निम्न ज्वार तल में निम्नतम अंतर कम होता है।

अपभू ज्वार(APOGEE TIDE)-  चंद्रमा और पृथ्वी के मध्य अधिकतम दूरी होने पर चंद्रमा का आकर्षण सागरतल पर अपेक्षाकृत कम पड़ता है जिससे सामान्य ज्वार की अपेक्षा 15 से 20% कमजोर ज्वार आता है।

उपभू/पेरिजियन टाइड- चंद्रमा पृथ्वी के मध्य न्यूनतम दूरी होने पर चंद्रमा का आकर्षण बल अपेक्षाकृत अधिक होता है इससे सामान्य की अपेक्षा ऊंचा ज्वार आता है।


ज्वार भाटा उत्पत्ति के सिद्धांत-

पाइथस नामक यूनानी विद्वान द्वारा सर्वप्रथम ज्वार भाटा उत्पत्ति का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया।
जो भूमध्यसागरीय ज्वार के आधार पर दिया गया।
आधुनिक सिद्धांतों में इसके संदर्भ में तीन प्रमुख सिद्धांत प्रचलित हैं। जो निम्न है -

■ संतुलन का सिद्धांत -  

●इक्वीलीब्रीयम थ्योरी-न्यूटन  1687 में,
 न्यूटन द्वारा 'प्रिंसिपियामैथमैटिका' में।
● यह सिद्धांत ब्रह्मांड में आकर्षण शक्तियों द्वारा स्थापित संतुलन की व्यवस्था के आधार पर प्रस्तुत किया गया।
● इस सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी के सबसे समीपस्थ आकाशीय पिंड चंद्रमा के आकर्षण बल का सागरीय जल पर स्पष्ट प्रभाव दृश्य होता है इस आधार पर सागरतल का ऊपर खींचता है जिससे ज्वार की दशा उत्पन्न होती है। जब यह जल पुनः सागर में निम्नतम बनाते हुए लौटता है तो यह भाटा की दशा होती है।

● इस स्थान के प्रतिधुव्रस्थ भाग पर उपर्युक्त प्रक्रिया से क्रमशः भाटा व ज्वार की उत्पत्ति होती है।

प्रगामी तरंग सिद्धांत -

● 1833 में वेवेल ने यह सिद्धांत दिया।
● 1842 में वेवेल ने इस सिद्धांत को 'केनाल सिद्धांत' के रूप में संशोधित किया अर्थात 'नहर सिद्धांत' के रूप में ।
● वेवेल के अनुसार दक्षिणी गोलार्द्ध के खुले महासागरों में चंद्रमा के आकर्षण बल के परिणामतः पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर प्राथमिक तरंगे उत्पन्न होती हैं।
● यह तरंगे महाद्वीपों के पूर्वी भाग पर टकराकर तट कि आकृति का अनुसरण करते हुए दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर प्रगामी स्वभाव प्राप्त कर लेती है। इन तरंगों को द्वितीयक तरंगे कहा जाता है।
● इन द्वितीयक तरंगों से स्थानिक आंतरिक सागर, सीमांत सागर तथा संकिर्ण खाडियों के स्वरूप के आधार पर भिन्न-भिन्न ऊचाई की  "केनाल वेव" उत्पन्न होती हैं इन्हें वेवेल ने तृतीयक तरंगे कहा।
● ज्वार की ऊंचाई "बरनौली प्रमेय" के अनुसार निर्धारित होती है।
● यह सिद्धांत मूलतः इस तथ्य का अनुसरण करता है कि ज्वारीय दशा की प्रारंभिक उत्पति दक्षिणी गोलार्द्ध के सागर में होती है।

■  स्थैतिक तरंग सिद्धांत -

● 19वीं शताब्दी के अंत में विलियम हैरिस द्वारा यह सिद्धांत दिया गया।
● इस सिद्धांत के अनुसार ज्वार भाटा की क्रिया प्रत्येक महासागर व आंतरिक सागर में भिन्न-भिन्न प्रकार से पृथक रूप में उत्पन्न होती है।
● प्रत्येक सागर के जल कल का एक नोडल बिंदु होता है जिसके सापेक्ष चंद्रमा के आकर्षण बल के कारण तट के एक सिरे पर ज्वार व दूसरे सिरे पर भाटा उत्पन्न होता है।
● तरंग के स्वभाव की भांति दोलन करते हुए भाटा वाले स्थान पर ज्वार तथा ज्वार वाले स्थान पर भाटा की दशा बनती है।
● संसार का सबसे ऊंचा ज्वार उत्तरी पूर्वी कनाडा में फंडी की खाड़ी में आता है जहां 17 से 20 मीटर तक उच्च ज्वार तल की दशा बनती है।

Saturday, June 6, 2020

भारत वन स्थिति रिपोर्ट और वन संरक्षण

● वन आरंभ से ही प्राकृतिक संसाधन के रूप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण संसाधन है और मानव विकास के केंद्र रहे हैं। इसलिए वनों के बिना मानवीय जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
● बीते कई वर्षों से जिस प्रकार बिना सोचे समझे वनों की कटाई की जा रही है। उसे देखते हुए इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि जल्द ही हमें इसके भयावह परिणाम देखने को मिलेंगे।
● भारत में वनों की कटाई का मुद्दा एक महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है। इस संदर्भ में सरकार के द्वारा कई प्रयास किए जा रहे हैं।
● सरकार के इन्हीं प्रयासों का परिणाम हाल ही में जारी भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2019 में देखने को मिला है।
● अर्थात बीते 2 वर्षो में देश के हरित क्षेत्रों में सकारात्मक वृद्धि या बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

■भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2019

● इस रिपोर्ट को वर्ष 1987 से 'भारतीय वन सर्वेक्षण' द्वारा द्विवार्षिक आधार पर प्रकाशित की जाता है
● यह इस श्रेणी की 16वीं रिपोर्ट हैं।
● इसमें वन एवं वन संसाधनों के आकलन हेतु देश में 2200 से अधिक स्थानों से प्राप्त आंकड़ों का प्रयोग किया गया है।
● इस रिपोर्ट में 'वनों के प्रकार एवं जैव विविधता' नामक नया अध्याय जोड़ा गया, जिसमें वृक्ष प्रजातियों को 16 मुख्य वर्गों में विभाजित कर उनका 'चैंपियन एवं सेठ वर्गीकरण' के आधार पर वर्गीकरण किया गया।


● स्वतंत्रता से पूर्व औपनिवेशिक काल से भारत में वन नीतियों का उद्देश्य राजस्व प्राप्त करना रहा था। जिस पर शाही वन विभाग का स्वामित्व होता था, जो वन संपदा का संरक्षण व प्रबंधन का कार्य करते थे।
● स्वतंत्रता के पश्चात वनों को उद्योगों हेतु कच्चे माल के प्राप्ति स्रोत के रूप में देखा जाने लगा।

राष्ट्रीय वन नीति-1988

●इसके अंतर्गत वनों को न केवल राजस्व स्रोत के रूप में बल्कि पर्यावरणीय संवेदनशीलता एवं संरक्षण के महत्वपूर्ण तत्वों या अवयवों के रूप में देखा गया।
●राष्ट्रीय वन नीति-1988 अनुसार वन उत्पादों पर प्राथमिक अधिकार उन समुदाय का होना चाहिए जिनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति इन वनों पर निर्भर करती है।
●इसमें वनों के संरक्षण में लोगों की भागीदारी बढ़ाने पर भी जोर दिया गया।


16वीं भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2019 में देश में वनों एवं वृक्षों से आच्छादित लगभग 8,07,276 वर्ग किलोमीटर है जो कि देश के कुल क्षेत्रफल का 24.56% है।
★ 2017 की रिपोर्ट की तुलना में देखे तो वनों के क्षेत्रफल में 0.56% वृद्धि हुई है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का वनावरण क्षेत्र 7,12,249 वर्ग किलोमीटर ( 21.67% )है।
★ वर्ष 1988 कि रिपोर्ट के अनुसार देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के एक तिहाई भाग पर वनाच्छादित क्षेत्र होना आवश्यक है।
★ पूर्वोत्तर राज्य में देखें तो वनावरण में कमी आयी है।
कुल- 1,70,541 वर्ग किलोमीटर ( 65.05% )
-765 वर्ग कि०मी० ( 0.45% ) की कमी
★ असम तथा त्रिपुरा को छोड़ पूर्वोत्तर राज्यों के वनावरण में कमी आई है।
पूर्वोत्तर राज्यों में सर्वाधिक वन आवरण ( प्रतिशत में ) -
- मिजोरम (85.41%)
- अरुणाचल प्रदेश (79.63%)
- मेघालय (76.33%)


वनों के लिए चलाई गई विभिन्न कार्यक्रम-

ग्रीन इंडिया मिशन-

● वर्ष 2014 में केंद्र सरकार द्वारा आयोजित
● 12वीं पंचवर्षीय योजना में 13000 करोड़ रुपए निवेश से वनावरण में 6 से 8 मिलियन हैक्टेयर की वृद्धि करने का लक्ष्य निर्धारित।
● यह जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना है।

REDD तथा REDD+ -

● REDD विकासशील देशों द्वारा उनके वन संसाधनों के बेहतर प्रबंधन एवं बचाव करने हेतु प्रोत्साहन राशि तक सीमित है।
● REDD+ वनों के निर्वनीकरण एवं निम्नीकरण, वनों के संरक्षण, संपोषणीय प्रबंधन एवं वन कार्बन भंडार के सकारात्मक तत्वों हेतु प्रोत्साहन राशि देता है।
● REDD+ में गुणवत्ता संवर्धन एवं वन आवरण का संवर्धन भी शामिल है जबकि ऐसी व्यवस्था REDD में नहीं है।

भारत में वन संरक्षण के लिए कदम और कानून-

फारेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया (FSI)-

●भारत में वनों की सुरक्षा के लिए 1981 में फारेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया (FSI) की स्थापना की गई थी।
●FSI वन और पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार के तहत काम कर रहा एक संगठन है।
●इसका प्राथमिक कार्य वनों के क्षेत्र को मापने के लिए देशव्यापी सर्वेक्षण के माध्यम से देश के वन धन को इकट्ठा और मूल्यांकन करना है।


इंटीग्रेटेड फारेस्ट प्रोटेक्शन स्कीम (IFPS)-

●जंगलों को आग से बचाने के लिए इंटीग्रेटेड फारेस्ट प्रोटेक्शन स्कीम (IFPS) तैयार की गई।  ●यह योजना पूर्वोत्तर राज्यों और सिक्किम के लिए बहुत फायदेमंद साबित हुई है और इन क्षेत्रों में जंगलों को बचाने के लिए संसाधनों की कमी भी पूरी हुई है।
●यह योजना 100% केंद्र द्वारा प्रायोजित है।
●इसका मुख्य उद्देश्य राज्यों और संघ शासित प्रदेशों को बुनियादी ढांचा प्रदान करना है और आग से जंगलों को बचाने और इसके उचित प्रबंधन करना है।

वन शिक्षा निदेशालय-

● वन और पर्यावरण मंत्रालय के अधीन है और इसका प्राथमिक कार्य राज्यों को, वन अधिकारियों और क्षेत्रीय वन अधिकारियों को प्रशिक्षण देना है।
●वर्तमान में तीन केंद्रीय वन अकादमियां देश में मौजूद हैं। ये क्रमशः ब्य्र्निहत (असम), कोयंबटूर (तमिलनाडु) और देहरादून (उत्तराखंड) में हैं और साथ ही कुर्सियांग के रेंजर्स कॉलेज भी (पश्चिम बंगाल) पूर्व वन क्षेत्र में हैं।
●भारत सरकार वन रेंजर्स कालेजों का संचालन करती है। हालांकि वन शिक्षा निदेशालय ने गैर-वन संगठनों को प्रशिक्षण देने का कार्य भी शुरू कर दिया है।

Friday, June 5, 2020

चक्रवात एवं प्रतिचक्रवात

चक्रवात और प्रतिचक्रवात-
जब अलग-अलग प्रकार के वायुराशियां मिलती है तो,वायु तेज गति से उठती हैं जो ऊपर उठ कर बवंडर का रूप ले लेती हैं  जिससे चक्रवात(Cyclone)और प्रतिचक्रवात(Anticyclone) उत्पन्न होते है।

                               चक्रवात

●चक्रवात के केंद्र में वायुदाब कम होता है। तथा केंद्र से बाहर की और उच्च वायुदाब का क्षेत्र निर्मित होता है।
● चक्रवात वायुदाब में अंतर पड़ने से निर्मित होते हैं।
● इसमें हवाएं उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर चलती है।
●चक्रवातो में वायु की दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में anticlockwise direction(वामावर्त) में होती है और दक्षिणी गोलार्द्ध में clockwise direction (दक्षिणावर्त) में होती है।
●चक्रवात वर्षा कराने में भी सहायक है।


प्रतिचक्रवात

●प्रतिचक्रवात के केंद्र में वायुदाब उच्च होता है तथा केंद्र से बाहर की ओर निम्न वायुदाब के केंद्र होता हैं।
● इसमें वृत्ताकार समदाब रेखाओं से घिरे हुए क्षेत्रों का निर्माण होता है।
●प्रतिचक्रवातों की दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में clockwise direction(दक्षिणावर्त) और दक्षिणी गोलार्द्ध में anticlockwise direction(वामावर्त) में होती है।
●प्रतिचक्रवात से मौसम साफ रहता है।
उत्पत्ति- उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायुदाब के क्षेत्रों में।
मार्ग एवं दिशा- अनिश्चितता।


चक्रवातों के क्षेत्रीय नाम

●टायफून- चीन/फिलीपींस/जापान
●साइक्लोन- हिन्द महासागर/भारत
●विली-विलीज- आस्ट्रेलिया
●टोरनेडो- द०पू०अमेरिका


भारत में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण चक्रवात

1.Laila(लैला)-
●यह Bay Of Bangal (बंगाल की खाड़ी) (south-estern) में आता है।
●यह आंध्रप्रदेश,तमिलनाडु और श्रीलंका को प्रभावित करता है।

2.Phailin(फैलिन)-
●इसका नाम वियतनाम ने रखा है।
●यह सबसे ज्यादा आन्ध्रप्रदेश वा थोडा उड़ीसा और झारखण्ड को प्रभावित करता है।

3.Hudhud(हुदहुद)-
●यह अंडमान आइलैंड को प्रभावित करता है।
●यह श्रेणी 4 का चक्रवात है।
●यह सबसे ज्यादा आन्ध्रप्रदेश के विशाखापत्तनम को प्रभावित करता है।
●इसका असर छत्तीसगढ़,मध्यप्रदेश और उड़ीसा में भी थोडा होता है।

4.Varda(वरदा)-
●यह बंगाल की खाड़ी में आता है।
●वरदा का मतलब “Rose” होता है।
●इसे यह नाम पाकिस्तान ने दिया है।
●यह तमिलनाडू को प्रभावित करता है।

5.ओखी-
●बांग्लादेश ने नामकरण
●2017 में आया।
●प्रभावित- केरल।

6.फोनी-
●बांग्लादेश ने नामकरण।
●2019 मे आया।
●प्रभावित- ओडिशा।

7.एम्फान-
●थाईलैण्ड ने नामकरण।
●2020 में आया।
●प्रभावित- महाराष्ट्र, गोवा।

8.निसर्ग-
●2020 में आया।
●प्रभावित- महाराष्ट्र, गोवा।

9.गाजा- तमिलनाडु।

10.तितली- ओडिशा।

11.क्यार- कर्नाटक।

                        चक्रवातों का नामकरण

●चक्रवातों के नामकरण कि प्रक्रिया सन् 2004 से प्रारम्भ।
●8 देशों द्वारा 8 नाम दिये जाते है।
●ये देश निम्न हैं-
बांग्लादेश, भारत, मालदीव, म्यांमार, ओमान, पाकिस्तान, श्रीलंका, थाईलैंड

नोट: 34 समुद्री मील प्रति घंटे की रफ्तार से तेज गति कि पवनों का नामकरण किया जाता है।